अस्य खल्वात्मनः सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, यतस्तदापि पीतोन्मत्तकरसैरिव प्रकृष्टमोहवशवर्तिभिरिन्द्रियैरिमेऽस्माकमिष्टा इति क्रमेण विषयार्थं व्यापारो दृश्यते चेत्तत एव ज्ञायते दुःखमस्तीत्यभिप्रायः ।।६४।। एवं परमार्थेनेन्द्रियसुखस्य दुःखस्थापनार्थं गाथाद्वयं गतम् । अथ मुक्तात्मनां शरीराभावेऽपि सुखमस्तीति ज्ञापनार्थं शरीरं सुख- कारणं न स्यादिति व्यक्तीकरोति — पप्पा प्राप्य । कान् । इट्ठे विसए इष्टपञ्चेन्द्रियविषयान् । कथंभूतान् । मरने तककी परवाह न करके क्षणिक इन्द्रियविषयोंमें कूद पड़ते हैं । यदि उन्हें स्वभावसे ही दुःख न हो तो विषयोंमें रति ही न होनी चाहिये । जिसके शरीरका दाह दुःख नष्ट हो गया हो वह बाह्य शीतोपचारमें रति क्यों करेगा ? इससे सिद्ध हुआ कि परोक्षज्ञानियोंके दुःख स्वाभाविक ही है ।।६४।।
अब, मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीर सुखका साधन होनेकी बातका खंडन करते हैं । (सिद्ध भगवानके शरीरके बिना भी सुख होता है यह बात स्पष्ट समझानेके लिये, संसारावस्थामें भी शरीर सुखका – इन्द्रियसुखका – साधन नहीं है, ऐसा निश्चित करते हैं) : —
अन्वयार्थ : — [स्पर्शैः समाश्रितान् ] स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं ऐसे [इष्टान् विषयान् ] इष्ट विषयोंको [प्राप्य ] पाकर [स्वभावेन ] (अपने शुद्ध) स्वभावसे [परिणममानः ] परिणमन करता हुआ [आत्मा ] आत्मा [स्वयमेव ] स्वयं ही [सुख ] सुखरूप (-इन्द्रियसुखरूप) होता है [देहः न भवति ] देह सुखरूप नहीं होती ।।६५।।
टीका : — वास्तवमें इस आत्माके लिये सशरीर अवस्थामें भी शरीर सुखका साधन हो ऐसा हमें दिखाई नहीं देता; क्योंकि तब भी, मानों उन्मादजनक मदिराका पान किया हो
जीव प्रणमतो स्वयमेव सुखरूप थाय, देह थतो नथी. ६५.