कारणतामुपागतेन स्वभावेन परिणममानः स्वयमेवायमात्मा सुखतामापद्यते । शरीरं त्वचेतन-
फासेहिं समस्सिदे स्पर्शनादीन्द्रियरहितशुद्धात्मतत्त्वविलक्षणैः स्पर्शनादिभिरिन्द्रियैः समाश्रितान् सम्यक् प्राप्यान् ग्राह्यान्, इत्थंभूतान् विषयान् प्राप्य । स कः । अप्पा आत्मा कर्ता । किंविशिष्टः । सहावेण परिणममाणो अनन्तसुखोपादानभूतशुद्धात्मस्वभावविपरीतेनाशुद्धसुखोपादानभूतेनाशुद्धात्मस्वभावेन परिणममानः । इत्थंभूतः सन् सयमेव सुहं स्वयमेवेन्द्रियसुखं भवति परिणमति । ण हवदि देहो देहः ऐसी, प्रबल मोहके वश वर्तनेवाली, ‘यह (विषय) हमें इष्ट है’ इसप्रकार विषयोंकी ओर दौड़ती हुई इन्द्रियोंके द्वारा असमीचीन (अयोग्य) परिणतिका अनुभव करनेसे जिसकी १शक्तिकी उत्कृष्टता (-परम शुद्धता) रुक गई है ऐसे भी (अपने) ज्ञान -दर्शन -वीर्यात्मक स्वभावमें — जो कि (सुखके) निश्चयकारणरूप है — परिणमन करता हुआ यह आत्मा स्वयमेव सुखत्वको प्राप्त करता है, (-सुखरूप होता है;) और शरीर तो अचेतन ही होनेसे सुखत्वपरिणतिका निश्चय -कारण न होता हुआ किंचित् मात्र भी सुखत्वको प्राप्त नहीं करता ।
भावार्थ : — सशरीर अवस्थामें भी आत्मा ही सुखरूप (-इन्द्रियसुखरूप) परिणतिमें परिणमन करता है, शरीर नहीं; इसलिये सशरीर अवस्थामें भी सुखका निश्चय कारण आत्मा ही है अर्थात् इन्द्रियसुखका भी वास्तविक कारण आत्माका ही अशुद्ध स्वभाव है । अशुद्ध स्वभावमें परिणमित आत्मा ही स्वयमेव इन्द्रियसुखरूप होता है उसमें शरीर कारण नहीं है; क्योंकि सुखरूप परिणति और शरीर सर्वथा भिन्न होनेके कारण सुख और शरीरमें निश्चयसे किंचित्मात्र भी कार्यकारणता नहीं है ।।६५।।
अब, इसी बातको दृढ़ करते हैं : — १. इन्द्रियसुखरूप परिणमन करनेवाले आत्माकी ज्ञानदर्शन -वीर्यात्मक स्वभावकी उत्कृष्ट शक्ति रुक गई है
पण विषयवश स्वयमेव आत्मा सुख वा दुःख थाय छे. ६६.