Pravachansar (Hindi). Gatha: 67.

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एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोति स्वर्गे वा
विषयवशेन तु सौख्यं दुःखं वा भवति स्वयमात्मा ।।६६।।
अयमत्र सिद्धान्तो यद्दिव्यवैक्रियिकत्वेऽपि शरीरं न खलु सुखाय कल्प्येतेतीष्टानाम-
निष्टानां वा विषयाणां वशेन सुखं वा दुःखं वा स्वयमेवात्मा स्यात।।६६।।
अथात्मनः स्वयमेव सुखपरिणामशक्तियोगित्वाद्विषयाणामकिंचित्करत्वं द्योतयति
तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं
तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ।।६७।।
पुनरचेतनत्वात्सुखं न भवतीति अयमत्रार्थःकर्मावृतसंसारिजीवानां यदिन्द्रियसुखं तत्रापि जीव
उपादानकारणं, न च देहः देहकर्मरहितमुक्तात्मनां पुनर्यदनन्तातीन्द्रियसुखं तत्र विशेषेणात्मैव
कारणमिति ।।६५।। अथ मनुष्यशरीरं मा भवतु, देवशरीरं दिव्यं तत्किल सुखकारणं भविष्यतीत्याशङ्कां
निराकरोतिएगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि एकान्तेन हि स्फु टं देहः कर्ता सुखं न करोति
कस्य देहिनः संसारिजीवस्य क्व सग्गे वा आस्तां तावन्मनुष्याणां मनुष्यदेहः सुखं न करोति, स्वर्गे
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
११५
अन्वयार्थ :[एकान्तेन हि ] एकांतसे अर्थात् नियमसे [स्वर्गे वा ] स्वर्गमें भी
[देहः ] शरीर [देहिनः ] शरीरी (-आत्माको) [सुखं न करोति ] सुख नहीं देता [विषयवशेन
तु ]
परन्तु विषयोंके वशसे [सौख्यं दुःखं वा ] सुख अथवा दुःखरूप [स्वयं आत्मा भवति ]
स्वयं आत्मा होता है
।।६६।।
टीका :यहाँ यह सिद्धांत है किभले ही दिव्य वैक्रियिक ता प्राप्त हो तथापि
‘शरीर सुख नहीं दे सकता’; इसलिये, आत्मा स्वयं ही इष्ट अथवा अनिष्ट विषयोंके वशसे सुख
अथवा दुःखरूप स्वयं ही होता है
भावार्थ :शरीर सुख -दुःख नहीं देता देवोंका उत्तम वैक्रियिक शरीर सुखका
कारण नहीं है और नारकियोंका शरीर दुःखका कारण नहीं है आत्मा स्वयं ही इष्ट -अनिष्ट
विषयोंके वश होकर सुख -दुःखकी कल्पनारूपमें परिणमित होता है ।।६६।।
अब, आत्मा स्वयं ही सुखपरिणामकी शक्तिवाला होनेसे विषयोंकी अकिंचित्करता
बतलाते हैं :
जो दृष्टि प्राणीनी तिमिरहर, तो कार्य छे नहि दीपथी;
ज्यां जीव स्वयं सुख परिणमे, विषयो करे छे शुं तहीं ?
.६७.