११८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तथैव लोके कारणांतरमनपेक्ष्यैव स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थनिर्वितथानन्त-
शक्तिसहजसंवेदनतादात्म्यात् ज्ञानं, तथैव चात्मतृप्तिसमुपजातपरिनिर्वृत्तिप्रवर्तितानाकुलत्व-
शक्तिसहजसंवेदनतादात्म्यात् ज्ञानं, तथैव चात्मतृप्तिसमुपजातपरिनिर्वृत्तिप्रवर्तितानाकुलत्व-
सुस्थितत्वात् सौख्यं, तथैव चासन्नात्मतत्त्वोपलम्भलब्धवर्णजनमानसशिलास्तम्भोत्कीर्ण-
समुदीर्णद्युतिस्तुतियोगिदिव्यात्मस्वरूपत्वाद्देवः । अतोऽस्यात्मनः सुखसाधनाभासैर्विषयैः
पर्याप्तम् ।।६८।। — इति आनन्दप्रपंचः ।
जगति । तहा देवो निजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्न-
सुन्दरानन्दस्यन्दिसुखामृतपानपिपासितानां गणधरदेवादिपरमयोगिनां देवेन्द्रादीनां चासन्नभव्यानां मनसि
निरन्तरं परमाराध्यं, तथैवानन्तज्ञानादिगुणस्तवनेन स्तुत्यं च यद्दिव्यमात्मस्वरूपं तत्स्वभावत्वात्तथैव
देवश्चेति । ततो ज्ञायते मुक्तात्मनां विषयैरपि प्रयोजनं नास्तीति ।।६८।। एवं स्वभावेनैव
निरन्तरं परमाराध्यं, तथैवानन्तज्ञानादिगुणस्तवनेन स्तुत्यं च यद्दिव्यमात्मस्वरूपं तत्स्वभावत्वात्तथैव
देवश्चेति । ततो ज्ञायते मुक्तात्मनां विषयैरपि प्रयोजनं नास्तीति ।।६८।। एवं स्वभावेनैव
सुखस्वभावत्वाद्विषया अपि मुक्तात्मनां सुखकारणं न भवन्तीतिकथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् । अथेदानीं
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवाः पूर्वोक्तलक्षणानन्तसुखाधारभूतं सर्वज्ञं वस्तुस्तवेन नमस्कुर्वन्ति —
लोकमें अन्य कारणकी अपेक्षा रखे बिना ही भगवान आत्मा स्वयमेव ही (१) स्वपरको
प्रकाशित करनेमें समर्थ निर्वितथ ( – सच्ची) अनन्त शक्तियुक्त सहज संवेदनके साथ तादात्म्य
प्रकाशित करनेमें समर्थ निर्वितथ ( – सच्ची) अनन्त शक्तियुक्त सहज संवेदनके साथ तादात्म्य
होनेसे ज्ञान है, (२) आत्मतृप्तिसे उत्पन्न होनेवाली जो १परिनिवृत्ति है; उसमें प्रवर्तमान
अनाकुलतामें सुस्थितताके कारण सौख्य है, और (३) जिन्हें आत्मतत्त्वकी उपलब्धि निकट
है ऐसे बुध जनोंके मनरूपी २शिलास्तंभमें जिसकी अतिशय ३द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा
है ऐसे बुध जनोंके मनरूपी २शिलास्तंभमें जिसकी अतिशय ३द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा
दिव्य आत्मस्वरूपवान होनेसे देव है । इसलिये इस आत्माको सुखसाधनाभास (-जो सुखके
साधन नहीं हैं परन्तु सुखके साधन होनेका आभासमात्र जिनमें होता है ऐसे) विषयोंसे
बस हो ।
बस हो ।
भावार्थ : — सिद्ध भगवान किसी बाह्य कारणकी अपेक्षाके बिना अपने आप ही स्वपरप्रकाशक ज्ञानरूप हैं, अनन्त आत्मिक आनन्दरूप हैं और अचिंत्य दिव्यतारूप हैं । सिद्ध भगवानकी भाँति ही सर्व जीवोंका स्वभाव है; इसलिये सुखार्थी जीवोंको विषयालम्बी भाव छोड़कर निरालम्बी परमानन्दस्वभावरूप परिणमन करना चाहिये ।
-: इसप्रकार आनन्द -अधिकार पूर्ण हुआ :-
१. परिनिर्वृत्ति = मोक्ष; परिपूर्णता; अन्तिम सम्पूर्ण सुख. (परिनिर्वृत्ति आत्मतृप्तिसे होती है अर्थात् आत्मतृप्तिकी
पराकाष्ठा ही परिनिर्वृत्ति है ।) २. शिलास्तंभ = पत्थरका खंभा । ३. द्युति = दिव्यता; भव्यता, महिमा (गणधरदेवादि बुध जनोंके मनमें शुद्धात्मस्वरूपकी दिव्यताका स्तुतिगान
उत्कीर्ण हो गया है ।)