भिलषन्ति । तद्दुःखसंतापवेगमसहमाना अनुभवन्ति च विषयान्, जलायुका इव, तावद्यावत्
भिलषन्तस्तानेवानुभवन्तश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते । अतः पुण्यानि सुखाभासस्य दुःखस्यैव
रक्त को चाहती है और उसीको भोगती हुई मरणपर्यन्त क्लेशको पाती है, उसीप्रकार यह
पुण्यशाली जीव भी, पापशाली जीवोंकी भाँति, तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय प्राप्त
दुःखांकुरोंके द्वारा क्रमशः आक्रांत होनेसे, विषयोंको चाहते हुए और उन्हींको भोगते हुए
विनाशपर्यंत (-मरणपर्यन्त) क्लेश पाते हैं ।
भावार्थ : — जिन्हें समस्तविकल्पजाल रहित परमसमाधिसे उत्पन्न सुखामृतरूप सर्व आत्मप्रदेशोंमें परमआह्लादभूत स्वरूपतृप्ति नहीं वर्तती ऐसे समस्त संसारी जीवोंके निरन्तर विषयतृष्णा व्यक्त या अव्यक्तरूपसे अवश्य वर्तती है । वे तृष्णारूपी बीज क्रमशः अंकुररूप होकर दुःखवृक्षरूपसे वृद्धिको प्राप्त होकर, इसप्रकार दुःखदाहका वेग असह्य होने पर, वे जीव विषयोंमें प्रवृत्त होते हैं । इसलिये जिनकी विषयोंमें प्रवृत्ति देखी जाती है ऐसे देवों तकके समस्त संसारी जीव दुःखी ही हैं ।
इसप्रकार दुःखभाव ही पुण्योंका — पुण्यजनित सामग्रीका — आलम्बन करता है इसलिये पुण्य सुखाभास ऐसे दुःखका ही अवलम्बन – साधन है ।।७५।। १. जैसे मृगजलमेंसे जल नहीं मिलता वैसे ही इन्द्रियविषयोंमेंसे सुख प्राप्त नहीं होता । २. दुःखसंताप = दुःखदाह; दुःखकी जलन – पीड़ा ।