मात्रावधृतकालपरिमाणतया परस्परपरावृत्ता अन्वयव्यतिरेकास्ते पर्यायाश्चिद्विवर्तनग्रन्थय इति
यावत् । अथैवमस्य त्रिकालमप्येककालमाकलयतो मुक्ताफलानीव प्रलम्बे प्रालम्बे
एव चैतन्यमन्तर्हितं विधाय केवलं प्रालम्बमिव केवलमात्मानं परिच्छिन्दतस्त-
षड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः, एवंलक्षणगुणपर्यायाधारभूतममूर्तमसंख्यातप्रदेशं
अब, इसप्रकार त्रैकालिकको भी [-त्रैकालिक आत्माको भी ] एक कालमें समझ लेनेवाला वह जीव, जैसै मोतियोंको झूलते हुए हारमें अन्तर्गत माना जाता है, उसी प्रकार चिद्विवर्तोंका चेतनमें ही संक्षेपण [-अंतर्गत ] करके, तथा ३विशेषणविशेष्यताकी वासनाका ४अन्तर्धान होनेसे — जैसे सफे दीको हारमें ५अन्तर्हित किया जाता है, उसी प्रकार — चैतन्यको चेतनमें ही अन्तर्हित करके, जैसे मात्र ६हारको जाना जाता है, उसीप्रकार केवल आत्माको १. चेतन = आत्मा । २. अन्वयव्यतिरेक = एक दूसरेमें नहीं प्रवर्तते ऐसे जो अन्वयके व्यतिरेक । ३. विशेषण गुण है और विशेष्य वो द्रव्य है । ४. अंतर्धान = अदृश्य हो जाना । ५. अंतर्हित = गुप्त; अदृश्य । ६. हारको खरीदनेवाला मनुष्य हारको खरीदते समय हार, उसकी सफे दी और उनके मोतियों इत्यादिकी परीक्षा
हारको ही जानता है । यदि ऐसा न करे तो हारके पहिनने पर भी उसकी सफे दी आदिके विकल्प बने
रहनेसे हारको पहननेके सुखका वेदन नहीं कर सकेगा । પ્ર. ૧૮