मणेरिवाकम्पप्रवृत्तनिर्मलालोकस्यावश्यमेव निराश्रयतया मोहतमः प्रलीयते । यद्येवं लब्धो मया
संवेदनज्ञानेन तथैवागमभाषयाधःप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणाम-
विशेषबलेन पश्चादात्मनि योजयति । तदनन्तरमविकल्पस्वरूपे प्राप्ते, यथा पर्यायस्थानीयमुक्ताफलानि
दर्शनमोहान्धकारः प्रलीयते । इति भावार्थः ।।८०।। अथ प्रमादोत्पादकचारित्रमोहसंज्ञश्चौरोऽस्तीति
इसलिये निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है; और इसप्रकार मणिकी भाँति जिसका निर्मल
प्रकाश अकम्परूपसे प्रवर्तमान है ऐसे उस (चिन्मात्र भावको प्राप्त) जीवके मोहान्धकार
निराश्रयताके कारण अवश्यमेव प्रलयको प्राप्त होता है ।
भावार्थ : — अरहंत भगवान और अपना आत्मा निश्चयसे समान है । अरहंत भगवान मोह -राग -द्वेषरहित होनेसे उनका स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है, इसलिये यदि जीव द्रव्य -गुण- पर्याय रूपसे उस (अरहंत भगवानके) स्वरूपको मनके द्वारा प्रथम समझ ले तो ‘‘यह जो आत्मा, आत्माका एकरूप (-कथंचित् सदृश) त्रैकालिक प्रवाह है सो द्रव्य है, उसका जो एकरूप रहनेवाला चैतन्यरूप विशेषण है सो गुण है और उस प्रवाहमें जो क्षणवर्ती व्यतिरेक हैं सो पर्यायें हैं’’ इसप्रकार अपना आत्मा भी द्रव्य -गुण -पर्यायरूपसे मनके द्वारा ज्ञानमें आता है । इसप्रकार त्रैकालिक निज आत्माको मनके द्वारा ज्ञानमें लेकर — जैसे मोतियोंको और सफे दीको हारमें ही अन्तर्गत करके मात्र हार ही जाना जाता है, उसीप्रकार — आत्मपर्यायोंको और चैतन्य -गुणको आत्मामें ही अन्तर्गर्भित करके केवल आत्माको जानने पर परिणामी -परिणाम -परिणतिके भेदका विकल्प नष्ट हो जाता है, इसलिये जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है, और उससे दर्शनमोह निराश्रय होता हुआ नष्ट हो जाता है । यदि ऐसा है तो मैंने मोहकी सेना पर विजय प्राप्त करनेका उपाय प्राप्त कर लिया है, — ऐसा कहा है ।।८०।।