मोहा सम्यक् क्षपयितव्या इति तात्पर्यम् ।।८४।। अथ स्वकीयस्वकीयलिङ्गै रागद्वेषमोहान् ज्ञात्वा
भावार्थ : — (१) हाथीको पकड़नेके लिये धरतीमें खड्डा बनाकर उसे घाससे ढक दिया जाता है, वहाँ खड्डा होनेके कारण उस खड्डे पर जानेसे हाथी गिर पडता है और वह इसप्रकार पकड़ा जाता है । (२) हाथीको पकड़नेके लिये सिखाई हुई हथिनी भेजी जाती है; उसके शारीरिक रागमें फँसनेसे हाथी पकड़ा जाता है । (३) हाथी पकड़नेकी तीसरी रीति यह है कि उस हाथीके सामने दूसरा पालित हाथी भेजा जाता है; उसके पीछे वह हाथी उत्तेजित होकर लड़नेके लिये दौड़ता है और इसप्रकार वह पकड़नेवालोंके जालमें फँस जाता है ।
उपर्युक्त प्रकारसे जैसे हाथी (१) अज्ञानसे, (२) रागसे (३) द्वेषसे अनेक प्रकारके बन्धनको प्राप्त होता है, उसीप्रकार जीव (१) मोहसे, (२) रागसे या (३) द्वेषसे अनेक प्रकारके बन्धनको प्राप्त होता है, इसलिये मोक्षार्थीको मोह -राग -द्वेषका भलीभाँति -सम्पूर्णतया मूलसे ही क्षय कर देना चाहिये ।।८४।।
अब, इस मोहरागद्वेषको इन (आगामी गाथामें कहे गये) चिह्नों -लक्षणोंके द्वारा पहिचान कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना चाहिये, एसा प्रगट करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [अर्थे अयथाग्रहणं ] पदार्थका अयथाग्रहण (अर्थात् पदार्थोको जैसे हैं वैसे सत्यस्वरूप न मानकर उनके विषयमें अन्यथा समझ) [च ] और [तिर्यङ्मनुजेषु करुणाभावः ] तिर्यंच -मनुष्योंके प्रति करुणाभाव, [विषयेषु प्रसंगः च ] तथा विषयोंकी संगति (इष्ट विषयोंमें प्रीति और अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति) — [एतानि ] यह सब [मोहस्य लिंगानि ] मोहके चिह्न – लक्षण हैं ।।८५।।
विषयो तणो वळी संग, – लिंगो जाणवां आ मोहनां. ८५.