अर्थानामयाथातथ्यप्रतिपत्त्या तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहमभीष्ट- विषयप्रसंगेन रागमनभीष्टविषयाप्रीत्या द्वेषमिति त्रिभिलिंगैरधिगम्य झगिति संभवन्नापि त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्यः ।।८५।।
यथासंभवं त एव विनाशयितव्या इत्युपदिशति – अट्ठे अजधागहणं शुद्धात्मादिपदार्थे यथास्वरूपस्थितेऽपि विपरीताभिनिवेशरूपेणायथाग्रहणं करुणाभावो य शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद्विपरीतः करुणा- भावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभावः । केषु विषयेषु । मणुवतिरिएसु मनुष्य- तिर्यग्जीवेषु इति दर्शनमोहचिह्नम् । विसएसु य प्पसंगो निर्विषयसुखास्वादरहितबहिरात्मजीवानां मनोज्ञामनोज्ञविषयेषु च योऽसौ प्रकर्षेण सङ्गः संसर्गस्तं दृष्ट्वा प्रीत्यप्रीतिलिङ्गाभ्यां चारित्रमोहसंज्ञौ
टीका : — १पदार्थोंकी अयथातथ्यरूप प्रतिपत्तिके द्वारा और तिर्यंच -मनुष्य २प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धिसे मोहको (जानकर), इष्ट विषयोंकी आसक्तिसे रागको और अनिष्ट विषयोंकी अप्रीतिसे द्वेषको (जानकर) — इसप्रकार तीन लिंगोंके द्वारा (तीन प्रकारके मोहको) पहिचानकर तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीनो प्रकारका मोह नष्ट कर देने योग्य है ।
भावार्थ : — मोहके तीन भेद हैं — दर्शनमोह, राग और द्वेष । पदार्थोंके स्वरूपसे विपरीत मान्यता तथा तिर्यंचों और मनुष्योंके प्रति तन्मयतासे करुणाभाव वे दर्शनमोहके चिह्न हैं, इष्ट विषयोंमें प्रीति रागका चिह्न है और अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति द्वेषका चिह्न है । इन चिह्न ोंसे तीनों प्रकारके मोहको पहिचानकर मुमुक्षुओंको उसे तत्काल ही नष्ट कर देना चाहिये ।।८५।।
अब मोहक्षय करनेका उपायान्तर (-दूसरा उपाय) विचारते हैं : — १. पदार्थोंकी अयथातथ्यरूप प्रतिपत्ति = पदार्थ जैसे नहीं है उन्हें वैसा समझना अर्थात् उन्हें अन्यथा स्वरूपसे
अंगीकार करना । २. प्रेक्षायोग्य = मात्र प्रेक्षकभावसे -दृष्टाज्ञातारूपसे -मध्यस्थभावसे देखने योग्य ।
शास्त्रो वडे प्रत्यक्षआदिथी जाणतो जे अर्थ ने, तसु मोह पामे नाश निश्चय; शास्त्र समध्ययनीय छे. ८६.