Pravachansar (Hindi). Gatha: 86.

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अर्थानामयाथातथ्यप्रतिपत्त्या तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहमभीष्ट-
विषयप्रसंगेन रागमनभीष्टविषयाप्रीत्या द्वेषमिति त्रिभिलिंगैरधिगम्य झगिति संभवन्नापि
त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्यः
।।८५।।
अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।।८६।।
टीका :पदार्थोंकी अयथातथ्यरूप प्रतिपत्तिके द्वारा और तिर्यंच -मनुष्य प्रेक्षायोग्य
होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धिसे मोहको (जानकर), इष्ट विषयोंकी आसक्तिसे रागको
और अनिष्ट विषयोंकी अप्रीतिसे द्वेषको (जानकर)
इसप्रकार तीन लिंगोंके द्वारा (तीन
प्रकारके मोहको) पहिचानकर तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीनो प्रकारका मोह नष्ट कर देने योग्य
है
भावार्थ :मोहके तीन भेद हैंदर्शनमोह, राग और द्वेष पदार्थोंके स्वरूपसे
विपरीत मान्यता तथा तिर्यंचों और मनुष्योंके प्रति तन्मयतासे करुणाभाव वे दर्शनमोहके चिह्न
हैं, इष्ट विषयोंमें प्रीति रागका चिह्न है और अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति द्वेषका चिह्न है
इन चिह्न
ोंसे तीनों प्रकारके मोहको पहिचानकर मुमुक्षुओंको उसे तत्काल ही नष्ट कर देना चाहिये ।।८५।।
अब मोहक्षय करनेका उपायान्तर (-दूसरा उपाय) विचारते हैं :
१४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
यथासंभवं त एव विनाशयितव्या इत्युपदिशतिअट्ठे अजधागहणं शुद्धात्मादिपदार्थे यथास्वरूपस्थितेऽपि
विपरीताभिनिवेशरूपेणायथाग्रहणं करुणाभावो य शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद्विपरीतः करुणा-
भावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभावः केषु विषयेषु मणुवतिरिएसु मनुष्य-
तिर्यग्जीवेषु इति दर्शनमोहचिह्नम् विसएसु य प्पसंगो निर्विषयसुखास्वादरहितबहिरात्मजीवानां
मनोज्ञामनोज्ञविषयेषु च योऽसौ प्रकर्षेण सङ्गः संसर्गस्तं दृष्ट्वा प्रीत्यप्रीतिलिङ्गाभ्यां चारित्रमोहसंज्ञौ
१. पदार्थोंकी अयथातथ्यरूप प्रतिपत्ति = पदार्थ जैसे नहीं है उन्हें वैसा समझना अर्थात् उन्हें अन्यथा स्वरूपसे
अंगीकार करना
२. प्रेक्षायोग्य = मात्र प्रेक्षकभावसे -दृष्टाज्ञातारूपसे -मध्यस्थभावसे देखने योग्य
शास्त्रो वडे प्रत्यक्षआदिथी जाणतो जे अर्थ ने,
तसु मोह पामे नाश निश्चय; शास्त्र समध्ययनीय छे. ८६
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