परमात्मोपदेशकश्रुतज्ञानेन तावदात्मानं जानीते कश्चिद्भव्यः, तदनन्तरं विशिष्टाभ्यासवशेन परमसमाधिकाले रागादिविकल्परहितमानसप्रत्यक्षेण च तमेवात्मानं परिच्छिनत्ति, तथैवानुमानेन वा ।
१तत्त्वतः समस्त वस्तुमात्रको जानने पर २अतत्त्वअभिनिवेशके संस्कार करनेवाला मोहोपचय
(मोहसमूह) अवश्य ही क्षयको प्राप्त होता है । इसलिये मोहका क्षय करनेमें, परम शब्दब्रह्मकी
उपासनाका भावज्ञानके अवलम्बन द्वारा दृढ़ किये गये परिणामसे सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है । (जो परिणाम भावज्ञानके अवलम्बनसे दृढ़ीकृत हो ऐसे परिणामसे द्रव्य
श्रुतका अभ्यास करना सो मोहक्षय करनेके लिये उपायान्तर है) ।।८६।।
अब, जिनेन्द्रके शब्द ब्रह्ममें अर्थोंकी व्यवस्था (-पदार्थोंकी स्थिति) किस प्रकार हैसो विचार करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [द्रव्याणि ] द्रव्य, [गुणाः] गुण [तेषां पर्यायाः ] और उनकी पर्यायें[अर्थसंज्ञया ] ‘अर्थ’ नामसे [भणिताः ] कही गई हैं ।[तेषु ] उनमें, [गुणपर्यायाणाम् आत्माद्रव्यम् ] गुण -पर्यायोंका आत्मा द्रव्य है (गुण और पर्यायोंका स्वरूप -सत्त्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं हैं) [ इति उपदेशः ] इसप्रकार (जिनेन्द्रका) उपदेश है ।।८७।।१. तत्त्वतः = यथार्थ स्वरूपसे । २. अतत्त्व – अभिनिवेश = यथार्थ वस्तुस्वरूपसे विपरीत अभिप्राय ।
द्रव्यो, गुणो ने पर्ययो सौ ‘अर्थ’ संज्ञाथी कह्यां; गुण -पर्ययोनो आतमा छे द्रव्य जिन – उपदेशमां. ८७.