द्रव्याणि च गुणाश्च पर्यायाश्च अभिधेयभेदेऽप्यभिधानाभेदेन अर्थाः । तत्र गुण-
पर्यायानिय्रति गुणपर्यायैरर्यन्त इति वा अर्था द्रव्याणि, द्रव्याण्याश्रयत्वेनेय्रति द्रव्यैराश्रय-
भूतैरर्यन्त इति वा अर्था गुणाः, द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेय्रति द्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति
वा अर्थाः पर्यायाः । यथा हि सुवर्णं पीततादीन् गुणान् कुण्डलादींश्च पर्यायानियर्ति तैरर्यमाणं
वा अर्थो द्रव्यस्थानीयं, यथा च सुवर्णमाश्रयत्वेनेय्रति तेनाश्रयभूतेनार्यमाणा वा अर्थाः
टीका : — द्रव्य, गुण और पर्यायोंमें अभिधेयभेद होने पर भी अभिधानका अभेद
होनेसे वे ‘अर्थ’ हैं [अर्थात् द्रव्यों, गुणों और पर्यायोंमें वाच्यका भेद होने पर भी वाचकमें
भेद न दंखें तो ‘अर्थ’ ऐसे एक ही वाचक (-शब्द) से ये तीनों पहिचाने जाते हैं ] । उसमें
(इन द्रव्यों, गुणों और पर्यायोंमेंसे), जो गुणोंको और पर्यायोंको प्राप्त करते हैं — पहुँचते हैं
अथवा जो गुणों और पर्यायोंके द्वारा प्राप्त किये जाते है — पहुँचे जाते हैं ऐसे १‘अर्थ’ वे द्रव्य
हैं, जो द्रव्योंको आश्रयके रूपमें प्राप्त करते हैं — पहुँचते हैं – अथवा जो आश्रयभूत द्रव्योंके द्वारा
प्राप्त किये जाते हैं — पहुँचे जाते हैं ऐसे ‘अर्थ’ वे गुण हैं, जो द्रव्योंको क्रमपरिणामसे प्राप्त करते
— पहुँचते हैं अथवा जो द्रव्योंके द्वारा क्रमपरिणामसे (क्रमशः होनेवाले परिणामके कारण)
प्राप्त किये जाते हैं — पहुँचे जाते हैं ऐसे ‘अर्थ’ वे पर्याय है ।
जैसे द्रव्यस्थानीय (-द्रव्यके समान, द्रव्यके दृष्टान्तरूप) सुवर्ण, पीलापन इत्यादि
गुणोंको और कुण्डल इत्यादि पर्यायोंको प्राप्त करता है – पहुँचता है अथवा (सुवर्ण) उनके द्वारा
(-पीलापनादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों द्वारा) प्राप्त किया जाता है — पहुँचा जाता है
इसलिये द्रव्यस्थानीय सुवर्ण ‘अर्थ’ है, जैसे पीलापन इत्यादि गुण सुवर्णको आश्रयके रूपमें
प्राप्त करते हैं — पहुँचते हैं अथवा (वे) आश्रयभूत सुवर्णके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं — पहुँचे
जाते हैं इसलिये पीलापन इत्यादि गुण ‘अर्थ’ हैं; और जैसे कुण्डल इत्यादि पर्यायें सुवर्णको
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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तथाहि — अत्रैव देहे निश्चयनयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मास्ति । कस्माद्धेतोः । निर्विकारस्वसंवेदन-
प्रत्यक्षत्वात् सुखादिवत् इति, तथैवान्येऽपि पदार्था यथासंभवमागमाभ्यासबलोत्पन्नप्रत्यक्षेणानुमानेन वा
ज्ञायन्ते । ततो मोक्षार्थिना भव्येनागमाभ्यासः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ।।८६।। अथ द्रव्यगुणपर्याया-
णामर्थसंज्ञां कथयति — दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया द्रव्याणि गुणास्तेषां द्रव्याणां
पर्यायाश्च त्रयोऽप्यर्थसंज्ञया भणिताः कथिता अर्थसंज्ञा भवन्तीत्यर्थः । तेसु तेषु त्रिषु द्रव्यगुणपर्यायेषु
मध्ये गुणपज्जयाणं अप्पा गुणपर्यायाणां संबंधी आत्मा स्वभावः । कः इति पृष्टे । दव्व त्ति
उवदेसो द्रव्यमेव स्वभाव इत्युपदेशः, अथवा द्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे गुणपर्यायाणामात्मा
१. ‘ऋ’ धातुमेंसे ‘अर्थ’ शब्द बना है । ‘ऋ’ अर्थात् पाना, प्राप्त करना, पहुँचना, जाना । ‘अर्थ’ अर्थात्
(१) जो पाये – प्राप्त करे – पहुँचे, अथवा (२) जिसे पाया जाये – प्राप्त किया जाये – पहुँचा जाये ।