य एव स्वकीयेन चैतन्यात्मकेन द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमात्मानं परं च परकीयेन यथोचितेन
द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमेव निश्चयतः परिच्छिनत्ति, स एव सम्यगवाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोहं
क्षपयति । अतः स्वपरविवेकाय प्रयतोऽस्मि ।।८९।।
अथ सर्वथा स्वपरविवेकसिद्धिरागमतो विधातव्येत्युपसंहरति —
तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु ।
अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ।।९०।।
तस्माज्जिनमार्गाद्गुणैरात्मानं परं च द्रव्येषु ।
अभिगच्छतु निर्मोहमिच्छति यद्यात्मन आत्मा ।।९०।।
मात्मानं जानाति यदि । कथंभूतम् । स्वकीयशुद्धचैतन्यद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धं, न केवलमात्मानम्, परं च
यथोचितचेतनाचेतनपरकीयद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । कस्मात् । णिच्छयदो निश्चयतः निश्चयनयानुकूलं
टीका : — जो निश्चयसे अपनेको स्वकीय (अपने) चैतन्यात्मक द्रव्यत्वसे संबद्ध
(-संयुक्त) और परको परकीय (दूसरेके) १यथोचित द्रव्यत्वसे संबद्ध जानता है, वही
(जीव), जिसने कि सम्यक्त्वरूपसे स्व -परके विवेकको प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोहका क्षय
करता है । इसलिये मैं स्व -परके विवेकके लिये प्रयत्नशील हूँ ।।८९।।
अब, सब प्रकारसे स्वपरके विवेककी सिद्धि आगमसे करने योग्य है, ऐसा उपसंहार
करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [तस्मात् ] इसलिये (स्व -परके विवेकसे मोहका क्षय किया जा
सकता है इसलिये) [यदि ] यदि [आत्मा ] आत्मा [आत्मनः ] अपनी [निर्मोहं ] निर्मोहता
[इच्छति ] चाहता हो तो [जिनमार्गात् ] जिनमार्गसे [गुणैः ] गुणोंके द्वारा [द्रव्येषु ] द्रव्योंमें
[ आत्मानं परं च ] स्व और परको [अभिगच्छतु ] जानो (अर्थात् जिनागमके द्वारा विशेष
गुणोंसे ऐसा विवेक करो कि – अनन्त द्रव्योंमेंसे यह स्व है और यह पर है) ।।९०।।
१. यथोचित = यथायोग्य – चेतन या अचेतन (पुद्गलादि द्रव्य परकीय अचेतन द्रव्यत्वसे और अन्य आत्मा
परकीय चेतन द्रव्यत्वसे संयुक्त हैं)।
तेथी यदि जीव इच्छतो निर्मोहता निज आत्मने,
जिनमार्गथी द्रव्यो महीं जाणो स्व -परने गुण वडे. ९०.
कहानजैनशास्त्रमाला ]
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