कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
१५५
पृथक्त्ववृत्तस्वलक्षणैर्द्रव्यमन्यदपहाय तस्मिन्नेव च वर्तमानैः सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं
द्रव्यमाकाशं धर्ममधर्मं कालं पुद्गलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि । ततो नाहमाकाशं न धर्मो नाधर्मो
द्रव्यमाकाशं धर्ममधर्मं कालं पुद्गलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि । ततो नाहमाकाशं न धर्मो नाधर्मो
न च कालो न पुद्गलो नात्मान्तरं च भवामि; यतोऽमीष्वेकापवरकप्रबोधितानेक-
दीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि मच्चैतन्यं स्वरूपादप्रच्युतमेव मां पृथगवगमयति । एवमस्य
दीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि मच्चैतन्यं स्वरूपादप्रच्युतमेव मां पृथगवगमयति । एवमस्य
निश्चितस्वपरविवेकस्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहांकु रस्य प्रादुर्भूतिः स्यात् ।।९०।।
अप्पणो आत्मन इति । तथाहि — यदिदं मम चैतन्यं स्वपरप्रकाशकं तेनाहं कर्ता विशुद्धज्ञानदर्शन-
स्वभावं स्वकीयमात्मानं जानामि, परं च पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपं शेषजीवान्तरं च पररूपेण जानामि,
ततः कारणादेकापवरक प्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्ध-
चिदानन्दैकस्वभावस्य केनापि सह मोहो नास्तीत्यभिप्रायः ।।९०।। एवं स्वपरपरिज्ञानविषये मूढत्व-
ततः कारणादेकापवरक प्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्ध-
चिदानन्दैकस्वभावस्य केनापि सह मोहो नास्तीत्यभिप्रायः ।।९०।। एवं स्वपरपरिज्ञानविषये मूढत्व-
निरासार्थं गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्डिका गता । इति पञ्चविंशतिगाथाभिर्ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयाभिधानो
द्वितीयोऽधिकारः समाप्तः । अथ निर्दोषिपरमात्मप्रणीतपदार्थश्रद्धानमन्तरेण श्रमणो न भवति,
वर्तते हैं उनके द्वारा — आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य आत्माको सकल
त्रिकालमें ध्रुवत्व धारक द्रव्यके रूपमें निश्चित करता हूँ (जैसे चैतन्य लक्षणके द्वारा आत्माको
ध्रुव द्रव्यके रूपमें जाना, उसीप्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व इत्यादि लक्षणोंसे – जो कि स्व-
ध्रुव द्रव्यके रूपमें जाना, उसीप्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व इत्यादि लक्षणोंसे – जो कि स्व-
लक्ष्यभूत द्रव्यके अतिरिक्त अन्य द्रव्योंमें नहीं पाये जाते उनके द्वारा — आकाश धर्मास्तिकाय
इत्यादिको भिन्न -भिन्न ध्रुव द्रव्योंके रूपमें जानता हूँ) इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, मैं धर्म
नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और आत्मान्तर नहीं हूँ; क्योंकि —
नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और आत्मान्तर नहीं हूँ; क्योंकि —
मकानके १एक कमरेमें जलाये गये अनेक दीपकोंके प्रकाशोंकी भाँति यह द्रव्य इकट्ठे होकर
रहते हुए भी मेरा चैतन्य निजस्वरूपसे अच्युत ही रहता हुआ मुझे पृथक् बतलाता है ।
इसप्रकार जिसने स्व -परका विवेक निश्चित किया है ऐसे इस आत्माको विकारकारी मोहांकुरका प्रादुर्भाव नहीं होता ।
भावार्थ : — स्व -परके विवेकसे मोहका नाश किया जा सकता है । वह स्व- परका विवेक, जिनागमके द्वारा स्व -परके लक्षणोंको यथार्थतया जानकर किया जा सकता है ।।९०।। १. जैसे किसी एक कमरेमें अनेक दीपक जलाये जायें तो स्थूलदृष्टिसे देखने पर उनका प्रकाश एक दूसरेमें
मिला हुआ मालूम होता है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे विचारपूर्वक देखने पर वे सब प्रकाश भिन्न -भिन्न ही हैं;
(क्योंकि उनमेंसे एक दीपक बुझ जाने पर उसी दीपकका प्रकाश नष्ट होता है; अन्य दीपकोंके प्रकाश
नष्ट नहीं होते) उसीप्रकार जीवादिक अनेक द्रव्य एक ही क्षेत्रमें रहते हैं फि र भी सूक्ष्मदृष्टिसे देखने पर
वे सब भिन्न -भिन्न ही हैं, एकमेक नहीं होते ।
(क्योंकि उनमेंसे एक दीपक बुझ जाने पर उसी दीपकका प्रकाश नष्ट होता है; अन्य दीपकोंके प्रकाश
नष्ट नहीं होते) उसीप्रकार जीवादिक अनेक द्रव्य एक ही क्षेत्रमें रहते हैं फि र भी सूक्ष्मदृष्टिसे देखने पर
वे सब भिन्न -भिन्न ही हैं, एकमेक नहीं होते ।