Pravachansar (Hindi). Gatha: 91.

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१५प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अथ जिनोदितार्थश्रद्धानमन्तरेण धर्मलाभो न भवतीति प्रतर्कयति
सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे
सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि ।।९१।।
सत्तासंबद्धानेतान् सविशेषान् यो हि नैव श्रामण्ये
श्रद्दधाति न स श्रमणः ततो धर्मो न संभवति ।।९१।।

यो हि नामैतानि सादृश्यास्तित्वेन सामान्यमनुव्रजन्त्यपि स्वरूपास्तित्वेनाश्लिष्ट- विशेषाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छिन्दन्नश्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति तस्माच्छुद्धोपयोगलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति निश्चिनोतिसत्तासंबद्धे महासत्तासंबन्धेन सहितान् एदे एतान् पूर्वोक्तशुद्धजीवादिपदार्थान् पुनरपि किंविशिष्टान् सविसेसे विशेषसत्तावान्तरसत्ता स्वकीय- स्वकीयस्वरूपसत्ता तया सहितान् जो हि णेव सामण्णे सद्दहदि यः कर्ता द्रव्यश्रामण्ये स्थितोऽपि न श्रद्धत्ते

अब, न्यायपूर्वक ऐसा विचार करते हैं किजिनेन्द्रोक्त अर्थोंके श्रद्धान बिना धर्मलाभ (शुद्धात्मअनुभवरूप धर्मप्राप्ति) नहीं होता

अन्वयार्थ :[यः हि ] जो (जीव) [श्रामण्ये ] श्रमणावस्थामें [एतान् सत्ता- संबद्धान् सविशेषतान् ] इन सत्तासंयुक्त सविशेष पदार्थोंकी [न एव श्रद्दधाति ] श्रद्धा नहीं करता, [सः ] वह [श्रमणः न ] श्रमण नहीं है; [ततः धर्मः न संभवति ] उससे धर्मका उद्भव नहीं होता (अर्थात् उस श्रमणाभासके धर्म नहीं होता ) ।।९१।।

टीका :जो (जीव) इन द्रव्योंकोकि जो (द्रव्य) सादृश्य -अस्तित्वके द्वारा समानताको धारण करते हुए स्वरूपअस्तित्वके द्वारा विशेषयुक्त हैं उन्हेंस्व -परके भेदपूर्वक न जानता हुआ और श्रद्धा न करता हुआ यों ही (ज्ञान -श्रद्धाके बिना) मात्र श्रमणतासे (द्रव्यमुनित्वसे) आत्माका दमन करता है वह वास्तवमें श्रमण नहीं है; इसलिये, जैसे जिसे १. सत्तासंयुक्त = अस्तित्ववाले २. सविशेष = विशेषसहित; भेदवाले; भिन्न -भिन्न ३. अस्तित्व दो प्रकारका है :सादृश्यअस्तित्व और स्वरूपअस्तित्व सादृश्य -अस्तित्वकी अपेक्षासे

सर्व द्रव्योंमें समानता है, और स्वरूप -अस्तित्वकी अपेक्षासे समस्त द्रव्योंमें विशेषता है

श्रामण्यमां सत्तामयी सविशेष आ द्रव्यो तणी श्रद्धा नहि, ते श्रमण ना; तेमांथी धर्मोद्भव नहीं. ९१.