अथ ‘उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती’ इति प्रतिज्ञाय ‘चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो’ इति साम्यस्य धर्मत्वं निश्चित्य ‘परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो’ इति यदात्मनो हि स्फु टं ण सो समणो निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वपूर्वकपरमसामायिकसंयमलक्षणश्रामण्या- भावात्स श्रमणो न भवति । इत्थंभूतभावश्रामण्याभावात् तत्तो धम्मो ण संभवदि तस्मात्पूर्वोक्तद्रव्य- श्रमणात्सकाशान्निरुपरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति सूत्रार्थः ।।९१।। अथ ‘उव- संपयामि सम्मं’ इत्यादि नमस्कारगाथायां यत्प्रतिज्ञातं, तदनन्तरं ‘चारित्तं खलु धम्मो’ इत्यादिसूत्रेण चारित्रस्य धर्मत्वं व्यवस्थापितम् । अथ ‘परिणमदि जेण दव्वं’ इत्यादिसूत्रेणात्मनो धर्मत्वं भणित- रेती और स्वर्णकणोंका अन्तर ज्ञात नहीं है, उसे धूलधोयेको – उसमेंसे स्वर्णलाभ नहीं होता, इसीप्रकार उसमेंसे (-श्रमणाभासमेंसे) १निरुपराग आत्मतत्त्वकी उपलब्धि (प्राप्ति) लक्षणवाले धर्मलाभका उद्भव नहीं होता ।
भावार्थ : — जो जीव द्रव्यमुनित्वका पालन करता हुआ भी स्व -परके भेद सहित पदार्थोंकी श्रद्धा नहीं करता, वह निश्चय सम्यक्त्वपूर्वक परमसामायिकसंयमरूप मुनित्वके अभावके कारण मुनि नहीं है; इसलिये जैसे जिसे रेती और स्वर्णकणका विवेक नहीं है ऐसे धूलको धोनेवालेको, चाहे जितना परिश्रम करने पर भी, स्वर्णकी प्राप्ति नहीं होती, उसीप्रकार जिसे स्व और परका विवेक नहीं है ऐसे उस द्रव्यमुनिको, चाहे जितनी द्रव्यमुनित्वकी क्रियाओंका कष्ट उठाने पर भी, धर्मकी प्राप्ति नहीं होती ।।९१।।
२‘उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती’ इसप्रकार (पाँचवीं गाथामें) प्रतिज्ञा करके, ३‘चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो’ इसप्रकार (७वीं गाथामें) साम्यका धर्मत्व (साम्य ही धर्म है) निश्चित करके ४‘परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो’ इसप्रकार (८वीं गाथामें) जो आत्माका धर्मत्व १. निरुपराग = उपराग (-मलिनता, विकार) रहित । २. अर्थ – मैं साम्यको प्राप्त करता हूँ, जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती है । ३. अर्थ – चारित्र वास्तवमें धर्म है जो धर्म है वह साम्य है ऐसा (शास्त्रोंमें) कहा है । ४. अर्थ – द्रव्य जिस कालमें जिस भावरूप परिणमित होता है उस कालमें उस -मय है ऐसा (जिनेन्द्रदेवने)