Pravachansar (Hindi).

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१७प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

न च तैरुत्पादादिभिर्गुणपर्यायैर्वा सह द्रव्यं लक्ष्यलक्षणभेदेऽपि स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव द्रव्यस्य तथाविधत्वादुत्तरीयवत्

यथा खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते, तथा द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरण- सामर्थ्यस्वभावेनान्तरंगसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते यथा च तदेवोत्तरीय- ममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेद- करोति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते तथाविधत्वं कोऽर्थः उत्पादव्ययध्रौव्यगुणपर्यायस्वरूपेण परिणमति, तथा सर्वद्रव्याणि स्वकीयस्वकीययथोचितोत्पादव्ययध्रौव्यैस्तथैव गुणपर्यायैश्च सह यद्यपि संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभिर्भेदं कुर्वन्ति तथापि सत्तास्वरूपेण भेदं न कुर्वन्ति, स्वभावत एव तथाविधत्वमवलम्बन्ते तथाविधत्वं कोऽर्थः उत्पादव्ययादिस्वरूपेण परिणमन्ति अथवा यथा वस्त्रं

द्रव्यका उन उत्पादादिके साथ अथवा गुणपर्यायोंके साथ लक्ष्य -लक्षण भेद होने पर भी स्वरूपभेद नहीं है स्वरूपसे ही द्रव्य वैसा (उत्पादादि अथवा गुणपर्यायवाला) है वस्त्रके समान

जैसे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धोने पर निर्मल अवस्थासे (-निर्मल अवस्थारूप, निर्मल अवस्थाकी अपेक्षासे) उत्पन्न होता हुआ उस उत्पादसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है (अर्थात् स्वयं उत्पादरूपसे ही परिणत है); उसीप्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भीजो कि उचित बहिरंग साधनोंके सान्निध्य (निकटता; हाजरी) के सद्भावमें अनेक प्रकारकी बहुतसी अवस्थायें करता है वहअन्तरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरणके सामर्थ्यरूप स्वभावसे अनुगृहीत होने पर, उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ वह उत्पादसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है और जैसे वही वस्त्र निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ और मलिन अवस्थासे व्ययको प्राप्त होता हुआ उस व्ययसे लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्ययके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है; उसीप्रकार वही द्रव्य भी उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ और पूर्व अवस्थासे व्ययको प्राप्त होता हुआ उस व्ययसे लक्षित होता है; परन्तु उसका उस व्ययके १. द्रव्यमें निजमें ही स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण होनेकी सामर्थ्य है यह सामर्थ्यस्वरूप स्वभाव ही अपने

परिणमनमें (अवस्थांतर करनेमें) अन्तरंग साधन है