प्रथम तो १सत्से २सत्ताकी ३युतसिद्धतासे अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डीकी भाँति उनके सम्बन्धमें युतसिद्धता दिखाई नहीं देती । (दूसरे) अयुतसिद्धतासे भी वह (अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । ‘इसमें यह है (अर्थात् द्रव्यमें सत्ता है)’ ऐसी प्रतीति होती है इसलिये वह बन सकता है, — ऐसा कहा जाय तो (पूछते हैं कि) ‘इसमें यह है’ ऐसी प्रतीति किसके आश्रय (-कारण) से होती है ? यदि ऐसा कहा जाय कि भेदके आश्रयसे (अर्थात् द्रव्य और सत्तामें भेद होनेसे) होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्भाविक ? ४प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही रद्द (नष्ट, निरर्थक) कर दिया गया है, और यदि ५अताद्भाविक कहा जाय तो वह उपपन्न ही (ठीक ही) है, क्योंकि ऐसा (शास्त्रका) वचन है कि ‘जो द्रव्य है वह गुण नहीं है ।’ परन्तु (यहाँ भी यह ध्यानमें रखना कि) यह अताद्भाविक भेद ‘एकान्तसे इसमें यह है’ ऐसी प्रतीतिका आश्रय (कारण) नहीं है, क्योंकि वह १. सत् = अस्तित्ववान् अर्थात् द्रव्य ।२. सत्ता = अस्तित्व (गुण) । ३. युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुआ; समवायसे – संयोगसे सिद्ध हुआ । [जैसे लाठी और मनुष्यके भिन्न होने
सत्ताके योगसे द्रव्य ‘सत्तावाला’ (‘सत्’) हुआ है ऐसा नहीं है । लाठी और मनुष्यकी भाँति सत्ता और
४. द्रव्य और सत्तामें प्रदेशभेद नहीं है; क्योंकि प्रदेशभेद हो तो युतसिद्धत्व आये, जिसको पहले ही रद्द करके
बताया है । ५. द्रव्य वह गुण नहीं है और गुण वह द्रव्य नहीं है, – ऐसे द्रव्य -गुणके भेदको (गुण -गुणी -भेदको)