सतः सत्तायाश्च न तावद्युतसिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं, तयोर्दण्डदण्डिवद्युतसिद्धस्यादर्शनात् । अयुत-
सिद्धत्वेनापि न तदुपपद्यते । इहेदमिति प्रतीतेरुपपद्यत इति चेत् किंनिबन्धना हीहेदमिति
प्रतीतिः । भेदनिबन्धनेति चेत् को नाम भेदः । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । न
तावत्प्रादेशिकः, पूर्वमेव युतसिद्धत्वस्यापसारणात् । अताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एव, यद् द्रव्यं
तन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वेकान्तेनेहेदमिति प्रतीतेर्निबन्धनं,
एव भवति, न च भिन्नसत्तासमवायात् । अथवा यथा द्रव्यं स्वभावतः सिद्धं तथा तस्य योऽसौ
सत्तागुणः सोऽपि स्वभावसिद्ध एव । कस्मादिति चेत् । सत्ताद्रव्ययोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि
दण्डदण्डिवद्भिन्नप्रदेशाभावात् । इदं के कथितवन्तः । जिणा तच्चदो समक्खादा जिनाः कर्तारः तत्त्वतः
सम्यगाख्यातवन्तः कथितवन्तः सिद्धं तह आगमदो सन्तानापेक्षया द्रव्यार्थिकनयेनानादिनिधनागमादपि
तथा सिद्धं णेच्छदि जो सो हि परसमओ नेच्छति न मन्यते य इदं वस्तुस्वरूपं स हि स्फु टं परसमयो
१८४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
प्रथम तो १सत्से २सत्ताकी ३युतसिद्धतासे अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डीकी
भाँति उनके सम्बन्धमें युतसिद्धता दिखाई नहीं देती । (दूसरे) अयुतसिद्धतासे भी वह
(अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । ‘इसमें यह है (अर्थात् द्रव्यमें सत्ता है)’ ऐसी प्रतीति होती है इसलिये
वह बन सकता है, — ऐसा कहा जाय तो (पूछते हैं कि) ‘इसमें यह है’ ऐसी प्रतीति किसके
आश्रय (-कारण) से होती है ? यदि ऐसा कहा जाय कि भेदके आश्रयसे (अर्थात् द्रव्य और
सत्तामें भेद होनेसे) होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्भाविक ? ४प्रादेशिक
तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही रद्द (नष्ट, निरर्थक) कर दिया गया है, और यदि
५अताद्भाविक कहा जाय तो वह उपपन्न ही (ठीक ही) है, क्योंकि ऐसा (शास्त्रका) वचन
है कि ‘जो द्रव्य है वह गुण नहीं है ।’ परन्तु (यहाँ भी यह ध्यानमें रखना कि) यह अताद्भाविक
भेद ‘एकान्तसे इसमें यह है’ ऐसी प्रतीतिका आश्रय (कारण) नहीं है, क्योंकि वह
१. सत् = अस्तित्ववान् अर्थात् द्रव्य ।२. सत्ता = अस्तित्व (गुण) ।
३. युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुआ; समवायसे – संयोगसे सिद्ध हुआ । [जैसे लाठी और मनुष्यके भिन्न होने
पर भी लाठीके योगसे मनुष्य ‘लाठीवाला’ होता है, इसीप्रकार सत्ता और द्रव्यके अलग होने पर भी
सत्ताके योगसे द्रव्य ‘सत्तावाला’ (‘सत्’) हुआ है ऐसा नहीं है । लाठी और मनुष्यकी भाँति सत्ता और
द्रव्य अलग दिखाई ही नहीं देते । इसप्रकार ‘लाठी’ और लाठीवाले’ की भाँति ‘सत्ता’ और ‘सत्’के
संबंधमें युतसिद्धता नहीं है । ]
४. द्रव्य और सत्तामें प्रदेशभेद नहीं है; क्योंकि प्रदेशभेद हो तो युतसिद्धत्व आये, जिसको पहले ही रद्द करके
बताया है ।
५. द्रव्य वह गुण नहीं है और गुण वह द्रव्य नहीं है, – ऐसे द्रव्य -गुणके भेदको (गुण -गुणी -भेदको)
अताद्भाविक (तद्रूप न होनेरूप) भेद कहते हैं । यदि द्रव्य और सत्तामें ऐसा भेद कहा जाय तो वह
योग्य ही है ।