च परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतयातदुभयात्मक इति । एवमस्य स्वभावत एव त्रिलक्षणायां
वत् । यथैव हि परिगृहीतद्राघिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलदामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूच्चकासत्सु
नित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेषूच्चकासत्सु परिणामेषूत्तरोत्तरेष्ववसरेषूत्तरोत्तर-
परिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य प्रवाहस्या-
अनुभयस्वरूप है ।
इसप्रकार स्वभावसे ही त्रिलक्षण परिणामपद्धतिमें (परिणामोंकी परम्परामें) प्रवर्तमान द्रव्य स्वभावका १अतिक्रम नहीं करता इसलिये २सत्त्वको ३त्रिलक्षण ही ४अनुमोदना चाहिये – मोतियोंके हारकी भाँति ।
जैसे – जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियोंके हारमें, अपने- अपने स्थानोंमें प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियोंमें, पीछे -पीछेके स्थानोंमें पीछे -पीछेके मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले -पहलेके मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । इसीप्रकार जिसने ५नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) द्रव्यमें अपने अपने अवसरोंमें प्रकाशित (प्रगट) होते हुये समस्त परिणामोंमें पीछे -पीछेके अवसरों पर पीछे पीछेके परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले -पहलेके परिमाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणपना प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । १. अतिक्रम = उल्लंघन; त्याग । २. सत्त्व = सत्पना; (अभेदनयसे) द्रव्य । ३. त्रिलक्षण = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों लक्षणवाला; त्रिस्वरूप; त्रयात्मक । ४. अनुमोदना = आनंदमें सम्मत करना । ५. नित्यवृत्ति = नित्यस्थायित्व; नित्य अस्तित्व; सदा वर्तना ।