य एव हि पूर्वपरिणामोच्छेदात्मकः प्रवाहसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः, स एव
च परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतयातदुभयात्मक इति । एवमस्य स्वभावत एव त्रिलक्षणायां
परिणामपद्धतौ दुर्ललितस्य स्वभावानतिक्रमात्त्रिलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम्; मुक्ताफलदाम-
वत् । यथैव हि परिगृहीतद्राघिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलदामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूच्चकासत्सु
मुक्ताफलेषूत्तरोत्तरेषु धामसूत्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात्पूर्वपूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्वत्रापि
परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य सूत्रकस्यावस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति, तथैव हि परिगृहीत-
नित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेषूच्चकासत्सु परिणामेषूत्तरोत्तरेष्ववसरेषूत्तरोत्तर-
परिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य प्रवाहस्या-
वस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति ।।९९।।
समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितस्वसंवेदनज्ञानपर्यायस्य नाशस्तस्मिन्नेव समये तदुभयाधारभूतपरमात्म-
द्रव्यस्य स्थितिरित्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यत्रयेण संबन्धो भवतीति । एवमुत्पादव्ययध्रौव्यत्रयेणैकसमये
१८८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
बादके परिणामके उत्पादस्वरूप है, तथा वही परस्पर अनुस्यूतिसे रचित एकप्रवाहपने द्वारा
अनुभयस्वरूप है ।
इसप्रकार स्वभावसे ही त्रिलक्षण परिणामपद्धतिमें (परिणामोंकी परम्परामें) प्रवर्तमान
द्रव्य स्वभावका १अतिक्रम नहीं करता इसलिये २सत्त्वको ३त्रिलक्षण ही ४अनुमोदना चाहिये –
मोतियोंके हारकी भाँति ।
जैसे – जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियोंके हारमें, अपने-
अपने स्थानोंमें प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियोंमें, पीछे -पीछेके स्थानोंमें पीछे -पीछेके मोती
प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले -पहलेके मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर
अनुस्यूतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । इसीप्रकार
जिसने ५नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) द्रव्यमें अपने अपने अवसरोंमें प्रकाशित
(प्रगट) होते हुये समस्त परिणामोंमें पीछे -पीछेके अवसरों पर पीछे पीछेके परिणाम प्रगट होते
हैं इसलिये, और पहले -पहलेके परिमाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर
अनुस्यूति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणपना प्रसिद्धिको प्राप्त होता है ।
१. अतिक्रम = उल्लंघन; त्याग ।
२. सत्त्व = सत्पना; (अभेदनयसे) द्रव्य ।
३. त्रिलक्षण = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों लक्षणवाला; त्रिस्वरूप; त्रयात्मक ।
४. अनुमोदना = आनंदमें सम्मत करना ।
५. नित्यवृत्ति = नित्यस्थायित्व; नित्य अस्तित्व; सदा वर्तना ।