अथोत्पादव्ययध्रौव्याणां परस्पराविनाभावं दृढयति —
ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो ।
उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ।।१००।।
न भवो भङ्गविहीनो भङ्गो वा नास्ति संभवविहीनः ।
उत्पादोऽपि च भङ्गो न विना ध्रौव्येणार्थेन ।।१००।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
१८९
यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन परमात्मद्रव्यं परिणतं, तथापि द्रव्यार्थिकनयेन सत्तालक्षणमेव भवति ।
त्रिलक्षणमपि सत्सत्तालक्षणं कथं भण्यत इति चेत् ‘‘उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्’’ इति वचनात् । यथेदं
परमात्मद्रव्यमेकसमयेनोत्पादव्ययध्रौव्यैः परिणतमेव सत्तालक्षणं भण्यते तता सर्वद्रव्याणीत्यर्थः ।।९९।।
एवं स्वरूपसत्तारूपेण प्रथमगाथा, महासत्तारूपेण द्वितीया, यथा द्रव्यं स्वतःसिद्धं तथा सत्तागुणोऽपीति
कथनेन तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेऽपि सत्तैव द्रव्यं भण्यत इति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन
भावार्थ : — प्रत्येक द्रव्य सदा स्वभावमें रहता है इसलिये ‘सत्’ है । वह स्वभाव
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यस्वरूप परिणाम है । जैसे द्रव्यके विस्तारका छोटेसे छोटा अंश वह प्रदेश
है, उसीप्रकार द्रव्यके प्रवाहका छोटेसे छोटा अंश वह परिणाम है । प्रत्येक परिणाम स्व -कालमें
अपने रूपसे उत्पन्न होता है, पूर्वरूपसे नष्ट होता है और सर्व परिणामोंमें एकप्रवाहपना होनेसे
प्रत्येक परिणाम उत्पाद -विनाशसे रहित एकरूप – ध्रुव रहता है । और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमें
समयभेद नहीं है, तीनों ही एक ही समयमें हैं । ऐसे उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक परिणामोंकी
परम्परामें द्रव्य स्वभावसे ही सदा रहता है, इसलिये द्रव्य स्वयं भी, मोतियोंके हारकी भाँति,
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक है ।।९९।।
अब, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यका परस्पर १अविनाभाव दृढ़ करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [भवः ] उत्पाद [भङ्गविहीनः ] २भंग रहित [न ] नहीं होता,
[वा ] और [भङ्गः ] भंग [संभवविहीनः ] विना उत्पादके [नास्ति ] नहीं होता; [उत्पादः ]
उत्पाद [अपि च ] तथा [भङ्गः ] भंग [ध्रौव्येण अर्थेन विना ] ध्रौव्य पदार्थके बिना [न ]
नहीं होते ।।१००।।
१. अविनाभाव = एकके बिना दूसरेका नहीं होना वह; एक -दूसरे बिना हो ही नहीं सके ऐसा भाव ।
२. भंग = व्यय; नाश ।
उत्पाद भंग विना नहीं, संहार सर्ग विना नहीं;
उत्पाद तेम ज भंग, ध्रौव्य -पदार्थ विण वर्ते नहीं. १००.