मवश्यमनुमन्तव्यम् ।।१००।।
किसी भावका संहार ही नहीं होगा, – यह दोष आयगा); अथवा (२) यदि सत्का उच्छेद होगा
जायगा – यह दोष आयगा ।)
और १केवल स्थिति प्राप्त करनेको जानेवाली मृत्तिकाकी, व्यतिरेकों सहित स्थितिका — अन्वयका — उससे अभाव होनेसे, स्थिति ही नहीं होगी; अथवा तो क्षणिकको ही नित्यत्व आ जायगा । वहाँ (१) यदि मृत्तिकाकी स्थिति न हो तो समस्त ही भावोंकी स्थिति नहीं होगी, (अर्थात् यदि मिट्टी ध्रुव न रहे तो मिट्टीकी ही भाँति विश्वका कोई भी द्रव्य ध्रुव नहीं रहेगा, – टिकेगा ही नहीं यह दोष आयगा ।) अथवा (२) यदि क्षणिकका नित्यत्व हो तो चित्तके क्षणिक -भावोंका भी नित्यत्व होगा; (अर्थात् मनका प्रत्येक विकल्प भी त्रैकालिक ध्रुव हो जाय, – यह दोष आयगा ।)
इसलिये द्रव्यको २उत्तर उत्तर व्यतिरेकोंके सर्गके साथ, पूर्व पूर्वके व्यतिरेकोंके संहारके साथ और अन्वयके अवस्थान (ध्रौव्य)के साथ अविनाभाववाला, जिसको निर्विघ्न (अबाधित) त्रिलक्षणतारूप २लांछन प्रकाशमान है ऐसा अवश्य सम्मत करना ।।१००।। १. केवल स्थिति = (उत्पाद और व्यय रहित) अकेला ध्रुवपना, केवल स्थितिपना; अकेला अवस्थान ।
सकता । जैसे उत्पाद (या व्यय) द्रव्यका अंश है – समग्र द्रव्य नहीं, इसप्रकार ध्रौव्य भी द्रव्यका अंश
है; – समग्र द्रव्य नहीं । ] २. उत्तर उत्तर = बाद बादके । ३. लांछन = चिह्न ।