अथोत्पादादीनां द्रव्यादर्थान्तरत्वं संहरति —
उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया ।
दव्वम्हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ।।१०१।।
उत्पादस्थितिभङ्गा विद्यन्ते पर्यायेषु पर्यायाः ।
द्रव्ये हि सन्ति नियतं तस्माद्द्रव्यं भवति सर्वम् ।।१०१।।
उत्पादव्ययध्रौव्याणि हि पर्यायानालम्बन्ते, ते पुनः पर्याया द्रव्यमालम्बन्ते । ततः
समस्तमप्येतदेकमेव द्रव्यं, न पुनर्द्रव्यान्तरम् । द्रव्यं हि तावत्पर्यायैरालम्ब्यते, समुदायिनः
समुदायात्मकत्वात्; पादपवत् । यथा हि समुदायी पादपः स्कन्धमूलशाखासमुदायात्मकः
मित्यर्थंः ।।१००।। अथोत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्येण सह परस्पराधाराधेयभावत्वादन्वयद्रव्यार्थिकनयेन
द्रव्यमेव भवतीत्युपदिशति — उप्पादट्ठिदिभंगा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्त्वनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञान-
रूपेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण भङ्ग, तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वा-
वस्थारूपेण स्थितिरित्युक्तलक्षणास्त्रयो भङ्गाः कर्तारः । विज्जंते विद्यन्ते तिष्ठन्ति । केषु । पज्जएसु
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
१९३
प्र २५
अब, उत्पादादिका द्रव्यसे अर्थान्तरत्वको नष्ट करते हैं; (अर्थात् यह सिद्ध करते हैं कि
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य द्रव्यसे पृथक् पदार्थ नहीं हैं) : —
अन्वयार्थ : — [उत्पादस्थितिभङ्गाः ] उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय [पर्यायेषु ] पर्यायोंमें
[विद्यन्ते ] वर्तते हैं; [पर्यायाः ] पर्यायें [नियतं ] नियमसे [द्रव्ये हि सन्ति ] द्रव्यमें होती हैं,
[तस्मात् ] इसलिये [सर्वं ] वह सब [द्रव्यं भवति ] द्रव्य है ।।१०१।।
टीका : — उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वास्तवमें पर्यायों का आलम्बन करते हैं, और
वे पर्यायें द्रव्यका आलम्बन करती हैं, (अर्थात् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य पर्यायोंके आश्रयसे हैं और
पर्यायें द्रव्यके आश्रयसे हैं); इसलिये यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।
प्रथम तो द्रव्य पर्यायोंके द्वारा आलम्बित है (अर्थात् पर्यायें द्रव्याश्रित हैं), क्योंकि
१समुदायी समुदायस्वरूप होता है; वृक्षकी भाँति । जैसे समुदायी वृक्ष स्कंध, मूल और
१. समुदायी = समुदायवान समुदाय (समूह) का बना हुआ । (द्रव्य समुदायी है क्योंकि पर्यायोंके
समुदायस्वरूप है ।)
उत्पाद तेम ज ध्रौव्य ने संहार वर्ते पर्यये,
ने पर्ययो द्रव्ये नियमथी, सर्व तेथी द्रव्य छे. १०१.