रूढस्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षणः, तथा अन्तरंगबहिरंगसाधनारोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य
एवोत्तरपर्यायस्य जन्मक्षणः, स एव प्राक्तनपर्यायस्य नाशक्षणः, स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य
द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः । यथा च वर्धमानमृत्पिण्डमृत्तिकात्वेषु प्रत्येकवर्तीन्युत्पादव्ययध्रौव्याणि
(यहाँ उपरोक्त शंकाका समाधान किया जाता है : — इसप्रकार उत्पादादिका क्षणभेद हृदयभूमिमें तभी उतर सकता है जब यह माना जाय कि ‘द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाशको प्राप्त होता है !’ किन्तु ऐसा तो माना नहीं गया है; (क्योंकि यह स्वीकार और सिद्ध किया गया है कि) पर्यायोंके ही उत्पादादि हैं; (तब फि र) वहाँ क्षणभेद -कहाँसे हो सकता है ? यह समझते हैं : —
जैसे कुम्हार, दण्ड, चक्र और डोरी द्वारा आरोपित किये जानेवाले संस्कारकी उपस्थितिमें जो रामपात्रका जन्मक्षण होता है वही मृत्तिकापिण्डका नाशक्षण होता है, और वही दोनों १कोटियोंमें रहनेवाला मिट्टीपनका स्थितिक्षण होता है; इसीप्रकार अन्तरंग और बहिरंग साधनों द्वारा किये जानेवाले संस्कारोंकी उपस्थितिमें, जो उत्तर पर्यायका जन्मक्षण होता है वही पूर्व पर्यायका नाश क्षण होता है, और वही दोनों कोटियोंमें रहनेवाले द्रव्यत्वका स्थितिक्षण होता है ।
और जैसे रामपात्रमें, मृत्तिकापिण्डमें और मिट्टीपनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येक रूपमें (प्रत्येक पृथक् पृथक्) वर्तते होने पर भी त्रिस्वभावस्पर्शी मृत्तिकामें वे सम्पूर्णतया (सभी एक साथ) एक समयमें ही देखे जाते हैं; इसीप्रकार उत्तर पर्यायमें, पूर्व पर्यायमें और द्रव्यत्वमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येकतया (एक -एक) प्रवर्तमान होने पर भी १. कोटि = प्रकार (मिट्टीपन तो पिण्डरूप तथा रामपात्ररूप – दोनों प्रकारोंमें विद्यमान है ।)