इह हि यथा किलैकस्त्र्यणुकः समानजातीयोऽनेकद्रव्यपर्यायो विनश्यत्यन्यश्चतुरणुकः
प्रजायते, ते तु त्रयश्चत्वारो वा पुद्गला अविनष्टानुत्पन्ना एवावतिष्ठन्ते, तथा सर्वेऽपि
समानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च, समानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टानु-
त्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते । यथा चैको मनुष्यत्वलक्षणोऽसमानजातीयो द्रव्यपर्यायो विनश्यत्यन्य-
स्त्रिदशत्वलक्षणः प्रजायते, तौ च जीवपुद्गलौ अविनष्टानुत्पन्नावेवावतिष्ठेते, तथा
सर्वेऽप्यसमानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च, असमानजातीनि द्रव्याणि
त्वविनष्टानुत्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते । एवमात्मना ध्रुवाणि द्रव्यपर्यायद्वारेणोत्पादव्ययीभूतान्युत्पाद-
व्ययध्रौव्याणि द्रव्याणि भवन्ति ।।१०३।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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परमात्मावाप्तिरूपः स्वभावद्रव्यपर्यायः । पज्जओ वयदि अण्णो पर्यायो व्येति विनश्यति । कथंभूतः । अन्यः
पूर्वोक्तमोक्षपर्यायाद्भिन्नो निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपस्यैव मोक्षपर्यायस्योपादानकारणभूतः ।
कस्य संबन्धी पर्यायः । दव्वस्स परमात्मद्रव्यस्य । तं पि दव्वं तदपि परमात्मद्रव्यं णेव पणट्ठं ण उप्पण्णं
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नैव नष्टं न चोत्पन्नम् । अथवा संसारिजीवापेक्षया देवादिरूपो विभावद्रव्यपर्यायो
जायते मनुष्यादिरूपो विनश्यति तदेव जीवद्रव्यं निश्चयेन न चोत्पन्नं न च विनष्टं, पुद्गलद्रव्यं वा
द्वयणुकादिस्क न्धरूपस्वजातीयविभावद्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि निश्चयेन न चोत्पन्नं न च
विनष्टमिति । ततः स्थितं यतः कारणादुत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण द्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि द्रव्यस्य
टीका : — यहाँ (विश्वमें) जैसे एक त्रि -अणुक समानजातीय अनेक द्रव्यपर्याय विनष्ट
होती है और दूसरी १चतुरणुक (समानजातीय अनेक द्रव्यपर्याय) उत्पन्न होती है; परन्तु वे तीन
या चार पुद्गल (परमाणु) तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं ( – ध्रुव हैं ); इसीप्रकार सभी
समानजातीय द्रव्यपर्यायें विनष्ट होती हैं और उत्पन्न होती हैं, किन्तु समानजातीय द्रव्य तो
अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (-ध्रुव हैं ) ।
और, जैसे एक मनुष्यत्वस्वरूप असमानजातीय द्रव्य -पर्याय विनष्ट होती है और दूसरी
देवत्वस्वरूप (असमानजातीय द्रव्यपर्याय) उत्पन्न होती है, परन्तु वह जीव और पुद्गल तो
अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं, इसीप्रकार सभी असमानजातीय द्रव्य -पर्यायें विनष्ट हो जाती
हैं और उत्पन्न होती हैं, परन्तु असमानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं ।
इस प्रकार अपनेसे (२द्रव्यरूपसे) ध्रुव और द्रव्यपर्यायों द्वारा उत्पाद -व्ययरूप ऐसे
द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य हैं ।।१०३।।
१. चतुरणुक = चार अणुओंका (परमाणुओंका) बना हुआ स्कंध ।
२. ‘द्रव्य’ शब्द मुख्यतया दो अर्थोंमें प्रयुक्त होता है : (१) एक तो सामान्य – विशेषके पिण्डको अर्थात्
वस्तुको द्रव्य कहा जाता है; जैसे – ‘द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यस्वरूप है’; (२) दूसरे – वस्तुके सामान्य
अंशको भी द्रव्य कहा जाता है; जैसे – ‘द्रव्यार्थिक नय’ अर्थात् सामान्यांशग्राही नय । जहाँ जो अर्थ घटित
होता हो वहाँ वह अर्थ समझना चाहिये ।