स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः ।।१०७।।
वाच्यो न भवति । एवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य पूर्वोक्त लक्षण-
‘अतद्भाव’ है, जो कि अन्यत्वका कारण है । इसीप्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य
— इसप्रकार एक -दूसरेमें जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होनेका अभाव’ है वह २‘तद् -अभाव’ लक्षण ‘अतद्भाव’ है जो कि अन्यत्वका कारण है ।
भावार्थ : — एक आत्माका विस्तारकथनमें ‘आत्मद्रव्य’के रूपमें ‘ज्ञानादिगुण’ के रूपमें और ‘सिद्धत्वादि पर्याय’ के रूपमें — तीन प्रकारसे वर्णन किया जाता है । इसीप्रकार सर्व द्रव्योंके सम्बन्धमें समझना चाहिये ।
और एक आत्माके अस्तित्व गुणको ‘सत् आत्मद्रव्य’, सत् ज्ञानादिगुण’ और ‘सत् सिद्धत्वादि पर्याय’ — ऐसे तीन प्रकारसे विस्तारित किया जाता है; इसीप्रकार सभी द्रव्योंके सम्बन्धमें समझना चाहिये ।
और एक आत्माका जो अस्तित्व गुण है वह आत्मद्रव्य नहीं है, (सत्ता गुणके बिना) ज्ञानादिगुण नहीं है, या सिद्धत्वादि पर्याय नहीं है; और जो आत्मद्रव्य है, (अस्तित्वके सिवाय) ज्ञानादिगुण है या सिद्धत्वादि पर्याय है वह अस्तित्व गुण नहीं है — इसप्रकार उनमें परस्पर अतद्भाव है, जिसके कारण उनमें अन्यत्व है । इसीप्रकार सभी द्रव्योंके सम्बन्धमें समझना चाहिये । १. अन्यगुण = सत्ता के अतिरिक्त दूसरा कोई भी गुण । २. तद् -अभाव = उसका अभाव; (तद् -अभाव = तस्य अभावः) तद्भाव अतद्भावका लक्षण (स्वरूप) है;
अतद्भाव अन्यत्वका कारण है । प्र. २७