Pravachansar (Hindi). Gatha: 108.

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अथ सर्वथाऽभावलक्षणत्वमतद्भावस्य निषेधयति
जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो
एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ।।१०८।।
यद्द्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात
एष ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ।।१०८।।
वाच्यो न भवति केवलज्ञानादिगुणो वा सिद्धपर्यायो वा, मुक्तजीवकेवलज्ञानादिगुणसिद्धपर्यायशब्दैश्च
शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवति
इत्येवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य
पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावस्तदभावो भण्यते स च तदभावः पुनरपि किं भण्यते अतद्भावः संज्ञा-
लक्षणप्रयोजनादिभेद इत्यर्थः यथात्र शुद्धात्मनि शुद्धसत्तागुणेन सहाभेदः स्थापितस्तथा यथासंभवं
सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्य इत्यभिप्रायः ।।१०७।। अथ गुणगुणिनोः प्रदेशभेदनिषेधेन तमेव संज्ञादि-
भेदरूपमतद्भावं दृढयतिजं दव्वं तं ण गुणो यद्द्रव्यं स न गुणः, यन्मुक्तजीवद्रव्यं स शुद्धः सन् गुणो
न भवति मुक्तजीवद्रव्यशब्देन शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवतीत्यर्थः जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो
२१प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इसप्रकार इस गाथामें सत्ताका उदाहरण देकर अतद्भावको स्पष्टतया समझाया है
(यहाँ इतना विशेष है कि जो सत्ता गुणके सम्बन्धमें कहा है, वह अन्य गुणोंके विषयमें
भी भलीभाँति समझ लेना चाहिये जैसे कि :सत्ता गुणकी भाँति एक आत्माके पुरुषार्थ
गुणको ‘पुरुषार्थी आत्मद्रव्य’ ‘पुरुषार्थी ज्ञानादिगुण’ और ‘पुरुषार्थी सिद्धत्वादि पर्याय’
इसप्रकार विस्तरित कर सकते हैं अभिन्नप्रदेश होनेसे इसप्रकार विस्तार किया जाता है, फि र
भी संज्ञा -लक्षण -प्रयोजनादि भेद होनेसे पुरुषार्थगुणको तथा आत्मद्रव्यको, ज्ञानादि अन्य गुण
और सिद्धत्वादि पर्यायको अतद्भाव है, जो कि उनमें अन्यत्वका कारण है
।।१०७।।
अब, सर्वथा अभाव वह अतद्भावका लक्षण है, इसका निषेध करते हैं :
अन्वयार्थ :[अर्थात् ] स्वरूप अपेक्षासे [यद् द्रव्यं ] जो द्रव्य है [तत् न गुणः ]
वह गुण नहीं है, [यः अपि गुणः ] और जो गुण है [सः न तत्त्वं ] यह द्रव्य नहीं है [एषः
हि अतद्भावः ] यह अतद्भाव है; [न एव अभावः ] सर्वथा अभाव वह अतद्भाव नहीं है;
[इति निर्दिष्टः ] ऐसा (जिनेन्द्रदेव द्वारा) दरशाया गया है
।।१०८।।
स्वरूपे नथी जे द्रव्य ते गुण, गुण ते नहि द्रव्य छे ,
आने अतत्पणुं जाणवुं, न अभावने; भाख्युं जिने. १०८.