यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समानं तथापि मनुजो देवो न भवति । कस्मात् ।
प्रकारकी सत्ता) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो ?
भावार्थ : — जीव मनुष्य -देवादिक पर्यायरूप परिणमित होता हुआ भी अन्य नहीं हो जाता, अनन्य रहता है, वहका वही रहता है; क्योंकि ‘वही यह देवका जीव है, जो पूर्वभवमें मनुष्य था और अमुक भवमें तिर्यंच था’ ऐसा ज्ञान हो सकता है । इसप्रकार जीवकी भाँति प्रत्येक द्रव्य अपनी सर्व पर्यायोंमें वहका वही रहता है, अन्य नहीं हो जाता, — ✽अनन्य रहता है । इसप्रकार द्रव्यका अनन्यपना होनेसे द्रव्यका सत् -उत्पाद निश्चित होता है ।।११२।।
अन्वयार्थ : — [मनुजः ] मनुष्य [देवः न भवति ] देव नहीं है, [वा ] अथवा [देवः ] देव [मानुषः वा सिद्धः वा ] मनुष्य या सिद्ध नहीं है; [एवं अभवन् ] ऐसा न होता हुआ [अनन्य भावं कथं लभते ] अनन्यभावको कैसे प्राप्त हो सकता है ? ।।११३।। ✽(अर्थात् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक जीव, मनुष्यादि पर्यायोंरूप परिणमित होने पर भी, अन्वयशक्तिको नहीं छोड़ता होनेसे अनन्य – वहका वही – है ।)