Pravachansar (Hindi). Gatha: 113.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
२२१
यदि नोज्झति कथमन्यो नाम स्यात्, येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एव न
स्यात् ।।११२।।
अथासदुत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोति
मणुवो ण होदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा
एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ।।११३।।
मनुजो न भवति देवो देवो वा मनुषो वा सिद्धो वा
एवमभवन्ननन्यभावं कथं लभते ।।११३।।
अन्यो भिन्नः कथं भवति किंतु द्रव्यान्वयशक्तिरूपेण सद्भावनिबद्धोत्पादः स एवेति द्रव्यादभिन्न इति
भावार्थः ।।११२।। अथ द्रव्यस्यासदुत्पादं पूर्वपर्यायादन्यत्वेन निश्चिनोतिमणुवो ण हवदि देवो
आकुलत्वोत्पादकमनुजदेवादिविभावपर्यायविलक्षणमनाकुलत्वरूपस्वभावपरिणतिलक्षणं परमात्मद्रव्यं
यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समानं तथापि मनुजो देवो न भवति
कस्मात्
यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिसने त्रिकोटि सत्ता (-तीन
प्रकारकी सत्ता) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो ?

भावार्थ :जीव मनुष्य -देवादिक पर्यायरूप परिणमित होता हुआ भी अन्य नहीं हो जाता, अनन्य रहता है, वहका वही रहता है; क्योंकि ‘वही यह देवका जीव है, जो पूर्वभवमें मनुष्य था और अमुक भवमें तिर्यंच था’ ऐसा ज्ञान हो सकता है इसप्रकार जीवकी भाँति प्रत्येक द्रव्य अपनी सर्व पर्यायोंमें वहका वही रहता है, अन्य नहीं हो जाता,अनन्य रहता है इसप्रकार द्रव्यका अनन्यपना होनेसे द्रव्यका सत् -उत्पाद निश्चित होता है ।।११२।।

अब, असत् -उत्पादको अन्यत्वके द्वारा निश्चित करते हैं :

अन्वयार्थ :[मनुजः ] मनुष्य [देवः न भवति ] देव नहीं है, [वा ] अथवा [देवः ] देव [मानुषः वा सिद्धः वा ] मनुष्य या सिद्ध नहीं है; [एवं अभवन् ] ऐसा न होता हुआ [अनन्य भावं कथं लभते ] अनन्यभावको कैसे प्राप्त हो सकता है ? ।।११३।। (अर्थात् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक जीव, मनुष्यादि पर्यायोंरूप परिणमित होने पर भी, अन्वयशक्तिको नहीं छोड़ता होनेसे अनन्यवहका वहीहै )

मानव नथी सुर, सुर पण नहि मनुज के नहि सिद्ध छे;
ए रीत नहि होतो थको क्यम ते अनन्यपणुं धरे ? ११३.