Pravachansar (Hindi).

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२२प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवन्त्यसन्त एव यश्च पर्यायाणां द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव ततः पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पादः तथा हिन हि मनुजस्त्रिदशो वा सिद्धो वा स्यात्, न हि त्रिदशो मनुजो वा सिद्धो वा स्यात् एवमसन् कथमनन्यो नाम स्यात्, येनान्य एव न स्यात्; येन च निष्पद्यमानमनुजादिपर्यायं जायमानवलयादिविकारं कांचनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिपद- मन्यन्न स्यात् ।।११३।। देवपर्यायकाले मनुष्यपर्यायस्यानुपलम्भात् देवो वा माणुसो व सिद्धो वा देवो वा मनुष्यो न भवति स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धपर्यायो वा न भवति कस्मात् पर्यायाणां परस्परं भिन्नकालत्वात्, सुवर्णद्रव्ये कुण्डलादिपर्यायाणामिव एवं अहोज्जमाणो एवमभवन्सन् अणण्णभावं कधं लहदि अनन्यभाव-

टीका :पर्यायें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिके कालमें ही सत् (-विद्यमान) होनेसे, उससे अन्य कालोंमें असत् (-अविद्यमान) ही हैं और पर्यायोंका द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिके साथ गुंथा हुआ (-एकरूपतासे युक्त) जो क्रमानुपाती (क्रमानुसार) स्वकालमें उत्पाद होता है उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिका पहले असत्पना होनेसे, पर्यायें अन्य ही हैं इसीलिये पर्यायोंकी अन्यताके द्वारा द्रव्यकाजो कि पर्यायोंके स्वरूपका कर्ता, करण और अधिकरण होनेसे पर्यायोंसे अपृथक् है उसकाअसत् -उत्पाद निश्चित होता है

इस बातको (उदाहरण देकर) स्पष्ट करते हैं :
मनुष्य वह देव या सिद्ध नहीं है, और देव, वह मनुष्य या सिद्ध नहीं है; इसप्रकार

न होता हुआ अनन्य (-वहका वही) कैसे हो सकता है, कि जिससे अन्य ही न हो और जिससे मनुष्यादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भीवलयादि विकार (कंकणादि पर्यायें) जिसके उत्पन्न होती हैं ऐसे सुवर्णकी भाँतिपद -पद पर (प्रति पर्याय पर) अन्य न हो ? [जैसे कंकण, कुण्डल इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, (-भिन्न -भिन्न हैं, वे की वे ही नहीं हैं) इसलिये उन पर्यायोंका कर्ता सुवर्ण भी अन्य है, इसीप्रकार मनुष्य, देव इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, इसलिये उन पर्यायोंका कर्ता जीवद्रव्य भी पर्यायापेक्षासे अन्य है ]

भावार्थ :जीवके अनादि अनन्त -होने पर भी, मनुष्य पर्यायकालमें देवपर्यायकी या स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धपर्यायकी अप्राप्ति है अर्थात् मनुष्य, देव या सिद्ध नहीं है, इसलिये वे पर्यायें अन्य अन्य हैं ऐसा होनेसे, उन पर्यायोंका कर्त्ता, साधन और आधार जीव भी पर्यायापेक्षासे अन्यपनेको प्राप्त होता है इसप्रकार जीवकी भाँति प्रत्येक द्रव्यके पर्यायापेक्षासे