अमी मनुष्यादयः पर्याया नामकर्मनिर्वृत्ताः सन्ति तावत् । न पुनरेतावतापि तत्र
जीवस्य स्वभावाभिभवोऽस्ति, यथा कनकबद्धमाणिक्यकंक णेषु माणिक्यस्य । यत्तत्र नैव जीवः
स्वभावमुपलभते तत् स्वकर्मपरिणमनात्, पयःपूरवत् । यथा खलु पयःपूरः प्रदेशस्वादाभ्यां
पिचुमन्दचन्दनादिवनराजीं परिणमन्न द्रवत्वस्वादुत्वस्वभावमुपलभते, तथात्मापि प्रदेशभावाभ्यां
कर्मपरिणमनान्नामूर्तत्वनिरुपरागविशुद्धिमत्त्वस्वभावमुपलभते ।।११८।।
लब्धस्वभावा न भवन्ति, तेन कारणेन स्वभावाभिभवो भण्यते, न च जीवाभावः । कथंभूताः सन्तो
लब्धस्वभावा न भवन्ति । परिणममाणा सकम्माणि स्वकीयोदयागतकर्माणि सुखदुःखरूपेण परिणममाना
इति । अयमत्रार्थः — यथा वृक्षसेचनविषये जलप्रवाहश्चन्दनादिवनराजिरूपेण परिणतः सन्स्वकीय-
१. द्रवत्व = प्रवाहीपना ।
२. स्वादुत्व = स्वादिष्टपना ।
३. निरुपराग -विशुद्धिमत्व = उपराग (-मलिनता, विकार) रहित विशुद्धिवालापना [अरूपीपना और निर्विकार
-विशुद्धिवालापना आत्माका स्वभाव है । ]
२३४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीका : — प्रथम तो, यह मनुष्यादिपर्यायें नामकर्मसे निष्पन्न हैं, किन्तु इतनेसे भी वहाँ
जीवके स्वभावका पराभव नहीं है; जैसे कनकबद्ध (सुवर्णमें जड़े हुये) माणिकवाले कंकणोंमें
माणिकके स्वभावका पराभव नहीं होता तदनुसार । जो वहाँ जीव स्वभावको उपलब्ध नहीं
करता – अनुभव नहीं करता सो स्वकर्मरूप परिणमित होनेसे है, पानीके पूर (बाढ़) की भाँति ।
जैसे पानीका पूर प्रदेशसे और स्वादसे निम्ब -चन्दनादिवनराजिरूप (नीम, चन्दन इत्यादि
वृक्षोंकी लम्बी पंक्तिरूप) परिणमित होता हुआ ( अपने १द्रवत्व और २स्वादुत्वरूप स्वभावको
उपलब्ध नहीं करता, उसीप्रकार आत्मा भी प्रदेशसे और भावसे स्वकर्मरूप परिणमित होनेसे
(अपने) अमूर्तत्व और ३निरुपराग विशुद्धिमत्वरूप स्वभावको उपलब्ध नहीं करता ।
भावार्थ : — मनुष्यादिपर्यायोंमें कर्म कहीं जीवके स्वभावको न तो हनता है और न
आच्छादित करता है; परन्तु वहाँ जीव स्वयं ही अपने दोषसे कर्मानुसार परिणमन करता है,
इसलिये उसे अपने स्वभावकी उपलब्धि नहीं है । जैसे पानीका पूर प्रदेशकी अपेक्षासे वृक्षोंके
रूपसे परिणमित होता हुआ अपने प्रवाहीपनेरूप स्वभावको उपलब्ध करता हुआ अनुभव नहीं
करता, और स्वादकी अपेक्षासे वृक्षरूप परिणमित होता हुआ अपने स्वादिष्टपनेरूप स्वभावको
उपलब्ध नहीं करता, उसीप्रकार आत्मा भी प्रदेशकी अपेक्षासे स्वकर्मानुसार परिणमित होता
हुआ अपने अमूर्तस्वरूप स्वभावको उपलब्ध नहीं करता और भावकी अपेक्षासे स्वकर्मरूप
परिणमित होता हुआ उपरागसे रहित विशुद्धिवालापनारूप अपने स्वभावको उपलब्ध नहीं
करता । इससे यह निश्चित होता है कि मनुष्यादिपर्यायोंमें जीवोंको अपने ही दोषसे अपने