इह तावन्न कश्चिज्जायते न म्रियते च । अथ च मनुष्यदेवतिर्यङ्नारकात्मको जीवलोकः प्रतिक्षणपरिणामित्वादुत्संगितक्षणभंगोत्पादः । न च विप्रतिषिद्धमेतत्, संभवविलययोरेकत्व- कोमलशीतलनिर्मलादिस्वभावं न लभते, तथायं जीवोऽपि वृक्षस्थानीयकर्मोदयपरिणतः सन्परमाह्लादैक- लक्षणसुखामृतास्वादनैर्मल्यादिस्वकीयगुणसमूहं न लभत इति ।।११८।। अथ जीवस्य द्रव्येण नित्यत्वेऽपि पर्यायेण विनश्वरत्वं दर्शयति – जायदि णेव ण णस्सदि जायते नैव न नश्यति द्रव्यार्थिकनयेन । क्व । खणभंगसमुब्भवे जणे कोई क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कोऽपि । क्षणं क्षणं प्रति स्वभावकी अनुपलब्धि है, कर्मादिक अन्य किसी कारणसे नहीं । ‘कर्म जीवके स्वभावका पराभव करता है’ ऐसा कहना तो उपचार कथन है; परमार्थसे ऐसा नहीं है ।।११८।।
अब, जीवकी द्रव्यरूपसे १अवस्थितता होने पर भी पर्यायोंसे अनवस्थितता (अनित्यता -अस्थिरता) प्रकाशते हैं : —
अन्वयार्थ : — [क्षणभङ्गसमुद्भवे जने ] प्रतिक्षण उत्पाद और विनाशवाले जीवलोकमें [कश्चित् ] कोई [न एव जायते ] उत्पन्न नहीं होता और [न नश्यति ] न नष्ट होता है; [हि ] क्योंकि [यः भवः सः विलयः ] जो उत्पाद है वही विनाश है; [संभव -विलयौ इति तौ नाना ] और उत्पाद तथा विनाश, इसप्रकार वे अनेक (भिन्न) भी हैं ।।११९।।
टीका : — प्रथम तो यहाँ न कोई जन्म लेता है और न मरता है (अर्थात् इस लोकमें कोई न तो उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है ) । और (ऐसा होने पर भी) मनुष्य- देव -तिर्यंच -नारकात्मक जीवलोक प्रतिक्षण परिणामी होनेसे क्षण -क्षणमें होनेवाले विनाश और १. अवस्थितता = स्थिरपना; ठीक रहना ।
कारण जनम ते नाश छे; वळी जन्म नाश विभिन्न छे. ११९.