Pravachansar (Hindi). Gatha: 120.

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संभवात्संभवविलयस्वरूपे संभवतः; ततो देवादिपर्याये संभवति मनुष्यादिपर्याये विलीयमाने
चान्यः संभवोऽन्यो विलय इति कृत्वा संभवविलयवन्तौ देवादिमनुष्यादिपर्यायौ संभाव्येते एव
ततः प्रतिक्षणं पर्यायैर्जीवोऽनवस्थितः
।।११९।।
अथ जीवस्यानवस्थितत्वहेतुमुद्योतयति
तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे
संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स ।।१२०।।
तस्मात्तु नास्ति कश्चित् स्वभावसमवस्थित इति संसारे
संसारः पुनः क्रिया संसरतो द्रव्यस्य ।।१२०।।
घटाधारभूतमृत्तिकाद्रव्यवत् मनुष्यपर्यायदेवपर्यायाधारभूतसंसारिजीवद्रव्यवद्वा क्षणभङ्गसमुद्भवे हेतुः
कथ्यते संभवविलय त्ति ते णाणा संभवविलयौ द्वाविति तौ नाना भिन्नौ यतः कारणात्ततः
पर्यायार्थिकनयेन भङ्गोत्पादौ तथाहिय एव पूर्वोक्तमोक्षपर्यायस्योत्पादो मोक्षमार्गपर्यायस्य विनाश-
स्तावेव भिन्नौ न च तदाधारभूतपरमात्मद्रव्यमिति ततो ज्ञायते द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि
पर्यायरूपेण विनाशोऽस्तीति ।।११९।। अथ विनश्वरत्वे कारणमुपन्यस्यति, अथवा प्रथमस्थलेऽ-
धिकारसूत्रेण मनुष्यादिपर्यायाणां कर्मजनितत्वेन यद्विनश्वरत्वं सूचितं तदेव गाथात्रयेण विशेषेण
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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है’ ऐसा कहा जाने पर, उन दोनोंके आधारभूत ध्रौव्यका अन्यपना असंभवित होनेसे उत्पाद
और व्ययका स्वरूप प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्यायके उत्पन्न होने पर और
मनुष्यादिपर्यायके नष्ट होने पर, ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा माननेसे (इस
अपेक्षासे) उत्पाद और व्ययवाली देवादिपर्याय और मनुष्यादिपर्याय प्रगट होती है (-लक्षमें
आती है ); इसलिये जीव प्रतिक्षण पर्यायोंसे अनवस्थित है
।।११९।।
अब, जीवकी अनवस्थितताका हेतु प्रगट करते हैं :
अन्वयार्थ :[तस्मात् तु ] इसलिये [संसारे ] संसारमें [स्वभावसमवस्थितः
इति ] स्वभावसे अवस्थित ऐसा [कश्चित् न अस्ति ] कोई नहीं है; (अर्थात् संसारमें
किसीका स्वभाव केवल एकरूप रहनेवाला नहीं है ); [संसारः पुनः ] और संसार तो
[संसरतः ] संसरण करते हुये (गोल फि रते हुये, परिवर्तित होते हुये) [द्रव्यस्य ] द्रव्यकी
[क्रिया ] क्रिया है
।।१२०।।
तेथी स्वभावे स्थिर एवुं न कोई छे संसारमां;
संसार तो संसरण करता द्रव्य केरी छे क्रिया. १२०.