यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविधः परिणामः स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतुः । अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतुः । द्रव्यकर्म हेतुः, तस्य द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनैवोपलम्भात् । एवं सतीतरेतराश्रयदोषः । न हि; अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् । एवं कार्यकारणभूतनवपुराणद्रव्यकर्मत्वादात्मनस्तथाविधपरिणामो गाथाचतुष्टयेन द्वितीयस्थलं गतम् । अथ संसारस्य कारणं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तस्य तु कारणं मिथ्यात्वरागादिपरिणाम इत्यावेदयति — आदा निर्दोषिपरमात्मा निश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशात् कम्ममलिमसो कर्ममलीमसो भवति । तथाभवन्सन् किं करोति । परिणामं
अन्वयार्थ : — [कर्ममलीमसः आत्मा ] कर्मसे मलिन आत्मा [कर्मसंयुक्तं परिणामं ] कर्मसंयुक्त परिणामको (-द्रव्यकर्मके संयोगसे होनेवाले अशुद्ध परिणामको) [लभते ] प्राप्त करता है । [ततः ] उससे [कर्म श्लिष्यति ] कर्म चिपक जाता है (-द्रव्यकर्मका बंध होता है ); [तस्मात् तु ] इसलिये [परिणामः कर्म ] परिणाम वह कर्म है ।।१२१।।
टीका : — ‘संसार’ नामक जो यह आत्माका तथाविध (-उसप्रकारका) परिणाम है वही द्रव्यकर्मके चिपकनेका हेतु है । अब, उस प्रकारके परिणामका हेतु कौन है ? (इसके उत्तरमें कहते हैं किः) द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि १द्रव्यकर्मकी संयुक्ततासे ही वह देखा जाता है ।
(शंका : – ) ऐसा होनेसे २इतरेतराश्रयदोष आयगा ! (समाधान : – ) नहीं आयगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्मके साथ संबद्ध ऐसे आत्माका जो पूर्वका ३द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतुरूपसे ग्रहण (-स्वीकार) किया गया है । १. द्रव्यकर्मके संयोगसे ही अशुद्ध परिणाम होते हैं, द्रव्यकर्मके बिना वे कभी नहीं होते; इसलिये द्रव्यकर्म
अशुद्ध परिणामका कारण है । २. एक असिद्ध बातको सिद्ध करनेके लिये दूसरी असिद्ध बातका आश्रय लिया जाय, और फि र उस दूसरी
पर उसका कारण पुनः द्रव्यकर्म कहा है, इसलिये शंकाकारको शंका होती है कि इस बातमें इतरेतराश्रय दोष आता है । ३. नवीन द्रव्यकर्मका कारण अशुद्ध आत्मपरिणाम है, और उस अशुद्ध आत्मपरिणामका कारण वहका वही