Pravachansar (Hindi).

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लक्षणक्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात या च क्रिया सा पुनरात्मना स्वतन्त्रेण
प्राप्यत्वात्कर्म ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न
तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मणः अथ द्रव्यकर्मणः कः कर्तेति चेत
पुद्गलपरिणामो हि तावत्स्वयं पुद्गल एव, परिणामिनः परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन
परिणामादनन्यत्वात
यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा पुद्गलमय्येव क्रिया, सर्व-
द्रव्याणां परिणामलक्षणक्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात या च क्रिया सा पुनः
पुद्गलेन स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गल आत्मपरिणामात्मकस्य
अथवा द्वितीयपातनिकाशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धनयेन यथैवाकर्ता तथैवाशुद्धनयेनापि
सांख्येन यदुक्तं तन्निषेधार्थमात्मनो बन्धमोक्षसिद्धयर्थं कथंचित्परिणामित्वं व्यवस्थापयतीति
पातनिकाद्वयं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं निरूपयति
परिणामो सयमादा परिणामः स्वयमात्मा, आत्म-
परिणामस्तावदात्मैव कस्मात् परिणामपरिणामिनोस्तन्मयत्वात् सा पुण किरिय त्ति होदि सा पुनः
क्रियेति भवति, स च परिणामः क्रिया परिणतिरिति भवति कथंभूता जीवमया जीवेन
निर्वृत्तत्वाज्जीवमयी किरिया कम्म त्ति मदा जीवेन स्वतन्त्रेण स्वाधीनेन शुद्धाशुद्धोपादानकारणभूतेन
प्राप्यत्वात्सा क्रिया कर्मेति मता संमता कर्मशब्देनात्र यदेव चिद्रूपं जीवादभिन्नं भावकर्मसंज्ञं
निश्चयकर्म तदेव ग्राह्यम् तस्यैव कर्ता जीवः तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता तस्माद्द्रव्यकर्मणो न कर्तेति
अत्रैतदायातियद्यपि कथंचित् परिणामित्वे सति जीवस्य कर्तृत्वं जातं तथापि निश्चयेन स्वकीय-
परिणामानामेव कर्ता, पुद्गलकर्मणां व्यवहारेणेति तत्र तु यदा शुद्धोपादानकारणरूपेण शुद्धोपयोगेन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
२४१
प्र. ३१
परिणामके स्वरूपका कर्त्ता होनेसे परिणामसे अनन्य है; और जो उसका (-आत्माका)
तथाविध परिणाम है वह जीवमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी परिणामलक्षणक्रिया
आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है; और फि र, जो (जीवमयी) क्रिया है वह
आत्माके द्वारा स्वतंत्रतया
प्राप्य होनेसे कर्म है इसलिये परमार्थतः आत्मा अपने
परिणामस्वरूप भावकर्मका ही कर्त्ता है; किन्तु पुद्गलपरिणामस्वरूप द्रव्यकर्मका नहीं
अब यहाँ ऐसा प्रश्न होता है कि ‘(जीव भावकर्मका ही कर्त्ता है तब फि र)
द्रव्यकर्मका कर्त्ता कौन है ?’ इसका उत्तर इसप्रकार है :प्रथम तो पुद्गलका परिणाम
वास्तवमें स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी परिणामके स्वरूपका कर्त्ता होनेसे परिणामसे
अनन्य है; और जो उसका (-पुद्गलका) तथाविधि परिणाम है वह पुद्गलमयी ही क्रिया
है, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी परिणामस्वरूप क्रिया निजमय होती है, ऐसा स्वीकार किया गया
है; और फि र, जो (पुद्गलमयी) क्रिया है वह पुद्गलके द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होनेसे कर्म
है
इसलिये परमार्थतः पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस द्रव्यकर्मका ही कर्त्ता है, किन्तु
१. प्राप्य = प्राप्त होने योग्य, (जो स्वतंत्रपने करे सो कर्ता है; और क र्त्ता जिसे प्राप्त करे सो कर्म है )