परिणामके स्वरूपका कर्त्ता होनेसे परिणामसे अनन्य है; और जो उसका (-आत्माका) तथाविध परिणाम है वह जीवमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी परिणामलक्षणक्रिया आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है; और फि र, जो (जीवमयी) क्रिया है वह आत्माके द्वारा स्वतंत्रतया १प्राप्य होनेसे कर्म है । इसलिये परमार्थतः आत्मा अपने
परिणामस्वरूप भावकर्मका ही कर्त्ता है; किन्तु पुद्गलपरिणामस्वरूप द्रव्यकर्मका नहीं ।
अब यहाँ ऐसा प्रश्न होता है कि ‘(जीव भावकर्मका ही कर्त्ता है तब फि र)द्रव्यकर्मका कर्त्ता कौन है ?’ इसका उत्तर इसप्रकार है : — प्रथम तो पुद्गलका परिणामवास्तवमें स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी परिणामके स्वरूपका कर्त्ता होनेसे परिणामसे अनन्य है; और जो उसका (-पुद्गलका) तथाविधि परिणाम है वह पुद्गलमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी परिणामस्वरूप क्रिया निजमय होती है, ऐसा स्वीकार किया गया है; और फि र, जो (पुद्गलमयी) क्रिया है वह पुद्गलके द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होनेसे कर्म है । इसलिये परमार्थतः पुद्गल अपने परिणामस्वरूप उस द्रव्यकर्मका ही कर्त्ता है, किन्तु१. प्राप्य = प्राप्त होने योग्य, (जो स्वतंत्रपने करे सो कर्ता है; और क र्त्ता जिसे प्राप्त करे सो कर्म है ।)प्र. ३१