वा फले वा । कस्य फले । कम्मणो कर्मणः । भणिदा भणिता कथितेति । ज्ञानपरिणतिः ज्ञानचेतना अग्रे वक्ष्यमाणा, कर्मपरिणतिः क र्मचेतना, क र्मफलपरिणतिः कर्मफलचेतनेति भावार्थः ।।१२३।। अथ ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिधा चेतनां विशेषेण विचारयति — णाणं अट्ठवियप्पं ज्ञानं मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं भवति । अथवा पाठान्तरम् — णाणं अट्ठवियप्पो ज्ञानमर्थविकल्पः । तथाहि — अर्थः परमात्मादिपदार्थः, अनन्तज्ञानसुखादिरूपोऽहमिति रागाद्यास्रवास्तु मत्तो भिन्ना इति स्वपराकारावभासेनादर्श इवार्थ- आत्माका स्वरूप है; उस रूप (चेतनारूप) वास्तवमें आत्मा परिणमित होता है । आत्माका जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतनाका उल्लंघन नहीं करता, (अर्थात् आत्माका कोई भी परिणाम चेतनाको किंचित्मात्र भी नहीं छोड़ता — बिना चेतनाके बिलकुल नहीं होता) — ऐसा तात्पर्य है । और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूपसे तीन प्रकारकी है । उसमें ज्ञानपरिणति (ज्ञानरूपसे परिणति) वह ज्ञानचेतना, कर्म परिणति वह कर्मचेतना और कर्मफलपरिणति वह कर्मफलचेतना है ।।१२३।।
अन्वयार्थ* : — [अर्थविकल्पः ] अर्थविकल्प (अर्थात् स्व -पर पदार्थोंका भिन्नतापूर्वक युगपत् अवभासन) [ज्ञानं ] वह ज्ञान है; [जीवेन ] जीवके द्वारा [यत् समारब्धं ] जो किया जा रहा हो [कर्म ] वह कर्म है, [तद् अनेकविधं ] वह अनेक प्रकारका है; [सौख्यं वा दुःखं वा ] सुख अथवा दुःख [फलं इति भणितम् ] वह कर्मफल कहा गया है ।।१२४।।