Pravachansar (Hindi). Gatha: 124.

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खल्वात्मा परिणमति यः कश्चनाप्यात्मनः परिणामः स सर्वोऽपि चेतनां नातिवर्तत इति
तात्पर्यम् चेतना पुनर्ज्ञानकर्मक र्मफलत्वेन त्रेधा तत्र ज्ञानपरिणतिर्ज्ञानचेतना, कर्मपरिणतिः
कर्मचेतना, कर्मफलपरिणतिः कर्मफलचेतना ।।१२३।।
अथ ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपमुपवर्णयति
णाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं
तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ।।१२४।।
ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन यत्समारब्धम्
तदनेकविधं भणितं फलमिति सौख्यं वा दुःखं वा ।।१२४।।
वा फले वा कस्य फले कम्मणो कर्मणः भणिदा भणिता कथितेति ज्ञानपरिणतिः ज्ञानचेतना अग्रे
वक्ष्यमाणा, कर्मपरिणतिः क र्मचेतना, क र्मफलपरिणतिः कर्मफलचेतनेति भावार्थः ।।१२३।। अथ
ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिधा चेतनां विशेषेण विचारयतिणाणं अट्ठवियप्पं ज्ञानं मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं
भवति अथवा पाठान्तरम्णाणं अट्ठवियप्पो ज्ञानमर्थविकल्पः तथाहिअर्थः परमात्मादिपदार्थः,
अनन्तज्ञानसुखादिरूपोऽहमिति रागाद्यास्रवास्तु मत्तो भिन्ना इति स्वपराकारावभासेनादर्श इवार्थ-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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आत्माका स्वरूप है; उस रूप (चेतनारूप) वास्तवमें आत्मा परिणमित होता है आत्माका
जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतनाका उल्लंघन नहीं करता, (अर्थात् आत्माका कोई
भी परिणाम चेतनाको किंचित्मात्र भी नहीं छोड़ता
बिना चेतनाके बिलकुल नहीं होता)
ऐसा तात्पर्य है और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूपसे तीन प्रकारकी है उसमें
ज्ञानपरिणति (ज्ञानरूपसे परिणति) वह ज्ञानचेतना, कर्म परिणति वह कर्मचेतना और
कर्मफलपरिणति वह कर्मफलचेतना है
।।१२३।।
अब ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप वर्णन करते हैं :
अन्वयार्थ* :[अर्थविकल्पः ] अर्थविकल्प (अर्थात् स्व -पर पदार्थोंका भिन्नतापूर्वक
युगपत् अवभासन) [ज्ञानं ] वह ज्ञान है; [जीवेन ] जीवके द्वारा [यत् समारब्धं ] जो किया जा
रहा हो [कर्म ] वह कर्म है, [तद् अनेकविधं ] वह अनेक प्रकारका है; [सौख्यं वा दुःखं वा ]
सुख अथवा दुःख [फलं इति भणितम् ] वह कर्मफल कहा गया है
।।१२४।।
छे ‘ज्ञान’ अर्थविकल्प, ने जीवथी करातुं ‘कर्म’ छे,
ते छे अनेक प्रकारनुं, ‘फ ळ’ सौख्य अथवा दुःख छे. १२४.