Pravachansar (Hindi).

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अर्थविकल्पस्तावत् ज्ञानम् तत्र कः खल्वर्थः स्वपरविभागेनावस्थितं विश्वम्
विकल्पस्तदाकारावभासनम् यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोऽर्थ-
विकल्पस्तद् ज्ञानम् क्रियमाणमात्मना कर्म, क्रियमाणः खल्वात्मना प्रतिक्षणं तेन तेन भावेन
भवता यः तद्भावः स एव कर्मात्मना प्राप्यत्वात तत्त्वेकविधमपि द्रव्यकर्मोपाधिसन्निधि-
सद्भावासद्भावाभ्यामनेकविधम् तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्यं सुखदुःखं तत्कर्मफलम् तत्र
द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यासद्भावात्कर्म तस्य फलमनाकुलत्वलक्षणं प्रकृतिभूतं सौख्यं, यत्तु
द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यसद्भावात्कर्म तस्य फलं सौख्यलक्षणाभावाद्विकृतिभूतं दुःखम्
एवं
ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपनिश्चयः ।।१२४।।
परिच्छित्तिसमर्थो विकल्पः विकल्पलक्षणमुच्यते स एव ज्ञानं ज्ञानचेतनेति कम्मं जीवेण जं समारद्धं
कर्म जीवेन यत्समारब्धम् बुद्धिपूर्वकमनोवचनकायव्यापाररूपेण जीवेन यत्सम्यक्कर्तृमारब्धं तत्कर्म
२४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीका :प्रथम तो, अर्थविकल्प वह ज्ञान है वहाँ, अर्थ क्या है ? स्व -परके
विभागपूर्वक अवस्थित विश्व वह अर्थ है उसके आकारोंका अवभासन वह विकल्प है
और दर्पणके निज विस्तारकी भाँति (अर्थात् जैसे दर्पणके निज विस्तारमें स्व और पर आकार
एक ही साथ प्रकाशित होते हैं, उसीप्रकार) जिसमें एक ही साथ स्व -पराकार अवभासित होते
हैं, ऐसा अर्थविकल्प वह ज्ञान है
जो आत्माके द्वारा किया जाता है वह कर्म है प्रतिक्षण उस -उस भावसे होता हुआ
आत्माके द्वारा वास्तवमें किया जानेवाला जो उसका भाव है वही, आत्माके द्वारा प्राप्य होनेसे
कर्म है और वह (कर्म) एक प्रकारका होने पर भी, द्रव्यकर्मरूप उपाधिकी निकटताके
सद्भाव और असद्भावके कारण अनेक प्रकारका है
उस कर्मसे उत्पन्न किया जानेवाला सुख -दुःख वह कर्मफल है वहाँ, द्रव्यकर्मरूप
उपाधिकी निकटताके असद्भावके कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्वलक्षण
प्रकृतिभूत सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधिकी निकटताके सद्भावके कारण जो कर्म होता
है, उसका फल विकृति(विकार) भूत दुःख है, क्योंकि वहाँ सुखके लक्षणका अभाव है
इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप निश्चित हुआ
१. विश्व = समस्त पदार्थद्रव्य -गुण -पर्याय (पदार्थोंमें स्व और पर ऐसे दो विभाग हैं जो जाननेवाले
आत्माका अपना हो वह स्व है, और दूसरा सब, पर है )
२. अवभासन = अवभासन; प्रकाशन; ज्ञात होना; प्रगट होना
३. आत्मा अपने भावको प्राप्त करता है, इसलिये वह भाव ही आत्माका कर्म है
४. प्रकृतिभूत = स्वभावभूत (सुख स्वभावभूत है )
५. विकृतिभूत = विकारभूत (दुःख विकारभूत है, स्वभावभूत नहीं है )