रागरूपं शुभोपयोगलक्षणं कर्म तस्य फलं चक्रवर्त्यादिपञ्चेन्द्रियभोगानुभवरूपं, तच्चाशुद्धनिश्चयेन
सुखमप्याकुलोत्पादकत्वात् शुद्धनिश्चयेन दुःखमेव । यच्च रागादिविकल्परहितशुद्धोपयोगपरिणतिरूपं कर्म
भावार्थ : — जिसमें स्व, स्व -रूपसे और पर -रूपसे (परस्पर एकमेक हुये बिना, स्पष्ट भिन्नतापूर्वक) एक ही साथ प्रतिभासित हो सो ज्ञान है ।
जीवके द्वारा किया जानेवाला भाव वह (जीवका) कर्म है । उसके मुख्य दो भेद हैं : (१) निरुपाधिक (स्वाभाविक) शुद्धभावरूप कर्म, और (२) औपाधिक शुभाशुभभावरूप कर्म ।
इस कर्मके द्वारा उत्पन्न होनेवाला सुख अथवा दुःख कर्मफल है । वहाँ, द्रव्यकर्मरूप उपाधिमें युक्त न होनेसे जो निरुपाधिक शुद्धभावरूप कर्म होता है, उसका फल तो अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसा स्वभावभूत सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधिमें युक्त होनेसे जो औपाधिक शुभाशुभभावरूप कर्म होता है, उसका फल विकारभूत दुःख है, क्योंकि उसमें अनाकुलता नहीं, किन्तु आकुलता है ।
अन्वयार्थ : — [आत्मा परिणामात्मा ] आत्मा परिणामात्मक है; [परिणामः ] परिणाम [ज्ञानकर्मफलभावी ] ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होता है; [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं
परिणाम -आत्मक जीव छे, परिणाम ज्ञानादिक बने; तेथी करमफ ळ, कर्म तेम ज ज्ञान आत्मा जाणजे. १२५.