अथ ज्ञानकर्मकर्मफलान्यात्मत्वेन निश्चिनोति —
अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी ।
तम्हा णाणं कम्मं फलं च आदा मुणेदव्वो ।।१२५।।
आत्मा परिणामात्मा परिणामो ज्ञानकर्मफलभावी ।
तस्मात् ज्ञानं कर्म फलं चात्मा ज्ञातव्यः ।।१२५।।
भण्यते । सैव कर्मचेतनेति । तमणेगविधं भणिदं तच्च कर्म शुभाशुभशुद्धोपयोगभेदेनानेकविधं त्रिविधं
भणितम् । इदानीं फलचेतना कथ्यते — फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा फलमिति सुखं वा दुःखं वा ।
विषयानुरागरूपं यदशुभोपयोगलक्षणं कर्म तस्य फलमाकुलत्वोत्पादकं नारकादिदुःखं, यच्च धर्मानु-
रागरूपं शुभोपयोगलक्षणं कर्म तस्य फलं चक्रवर्त्यादिपञ्चेन्द्रियभोगानुभवरूपं, तच्चाशुद्धनिश्चयेन
सुखमप्याकुलोत्पादकत्वात् शुद्धनिश्चयेन दुःखमेव । यच्च रागादिविकल्परहितशुद्धोपयोगपरिणतिरूपं कर्म
तस्य फलमनाकुलत्वोत्पादकं परमानन्दैकरूपसुखामृतमिति । एवं ज्ञानकर्मकर्मफलचेतनास्वरूपं ज्ञात-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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भावार्थ : — जिसमें स्व, स्व -रूपसे और पर -रूपसे (परस्पर एकमेक हुये बिना,
स्पष्ट भिन्नतापूर्वक) एक ही साथ प्रतिभासित हो सो ज्ञान है ।
जीवके द्वारा किया जानेवाला भाव वह (जीवका) कर्म है । उसके मुख्य दो भेद हैं :
(१) निरुपाधिक (स्वाभाविक) शुद्धभावरूप कर्म, और (२) औपाधिक शुभाशुभभावरूप
कर्म ।
इस कर्मके द्वारा उत्पन्न होनेवाला सुख अथवा दुःख कर्मफल है । वहाँ, द्रव्यकर्मरूप
उपाधिमें युक्त न होनेसे जो निरुपाधिक शुद्धभावरूप कर्म होता है, उसका फल तो अनाकुलता
जिसका लक्षण है ऐसा स्वभावभूत सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधिमें युक्त होनेसे जो
औपाधिक शुभाशुभभावरूप कर्म होता है, उसका फल विकारभूत दुःख है, क्योंकि उसमें
अनाकुलता नहीं, किन्तु आकुलता है ।
इसप्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप कहा गया ।।१२४।।
अब ज्ञान, कर्म और कर्मफलको आत्मारूपसे निश्चित करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [आत्मा परिणामात्मा ] आत्मा परिणामात्मक है; [परिणामः ] परिणाम
[ज्ञानकर्मफलभावी ] ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होता है; [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं
परिणाम -आत्मक जीव छे, परिणाम ज्ञानादिक बने;
तेथी करमफ ळ, कर्म तेम ज ज्ञान आत्मा जाणजे. १२५.