Pravachansar (Hindi).

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[ २५ ]
विषय
गाथा
विषय
गाथा
‘कालाणु अप्रदेशी ही है’ऐसा नियम
शुभोपयोग और अशुभोपयोगका
कालपदार्थके द्रव्य और पर्याय..... ----- १३८
स्वरूप..... ...................१५७१५८
कालपदार्थके द्रव्य और पर्याय...... ----------- १३९
आकाशके प्रदेशका लक्षण..... --------------- १४०
तिर्यक्प्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय...... ------------- १४१
कालपदार्थका ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय है
इस

परद्रव्यके संयोगका जो कारण उसके

विनाशका अभ्यास..... .............. १५९ शरीरादि परद्रव्य प्रति मध्यस्थता प्रगटकरते हैं..१६० शरीर, वाणी और मनका परद्रव्यपना..... .. १६१ आत्माको परद्रव्यत्वका और उसके कर्तृत्वका

बातका खण्डन....---------------------- १४२ सर्व वृत्त्यंशोंमें कालपदार्थ

अभाव.... ........................... १६२
। ----------------
उत्पादव्ययध्रौव्यवाला है
१४३
परमाणुद्रव्योंको पिण्डपर्यायरूप

कालपदार्थका प्रदेशमात्रपना सिद्ध

परिणतिका कारण.................... १६३
। -------------------------------
करते हैं
१४४
आत्माको पुद्गलपिंडके कर्तृत्वका अभाव..... १६७
आत्माको शरीरपनेका अभाव..... .......... १७१
जीवका असाधारण स्वलक्षण................ १७२
अमूर्त आत्माको स्निग्ध
रुक्षत्वका अभाव

ज्ञानज्ञेयविभाग अधिकार आत्माको विभक्त करनेके लिये व्यवहारजीवत्वके

हेतुका विचार..... ................... १४५ प्राण कौनकौनसे है, सो बतलाते हैं..... . १४६

होनेसे बन्ध कैसे हो सकता
है ?
ऐसा पूर्वपक्ष..... ............... १७३
व्युत्पत्तिसे प्राणोंको जीवत्वका हेतुपना और
उनका पौद्गलिकपना... ............... १४७
उपर्युक्त पूर्वपक्षका उत्तर..... ............... १७४
भावबन्धका स्वरूप.... ..................... १७५
भावबन्धकी युक्ति और द्रव्यबन्धका स्वरूप . १७६
पुद्गलबन्ध, जीवबन्ध और

पौद्गलिक प्राणोंकी सन्ततिकी प्रवृत्तिका

अन्तरंग हेतु.......................... १५० पौद्गलिक प्राणसन्ततिकी निवृत्तिका

अन्तरंग हेतु.......................... १५१
उभयबन्धका स्वरूप..... ............. १७७
आत्माके अत्यन्त विभक्तत्वकी सिद्धिके लिये,

द्रव्यबन्धका हेतु भावबन्ध.... ............... १७८ भावबन्ध ही निश्चयबन्ध है.... ............. १७९ परिणामका द्रव्यबन्धके साधकतम रागसे

व्यवहारजीवत्वके हेतु जो गतिविशिष्ट
पर्याय उनका स्वरूप.... ............. १५१

पर्यायके भेद ............................... १५३ अर्थनिश्चायक अस्तित्वको स्वपरके

विशिष्टपना सविशेष प्रगट करते हैं.....१८०
। ...
विभागके हेतुके रूपमें समझाते हैं
१५४
विशिष्ट परिणामको, भेदको तथा अविशिष्ट
परिणामको कारणमें कार्यका
उपचार करके कार्यरूपसे बतलाते हैं....१८१
आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये,
परद्रव्यके संयोगके कारणका स्वरूप....१५५