विभाग............................... १८२ स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका और परद्रव्यमें प्रवृत्तिका
श्रामण्य – इच्छुक पहले क्या
यथाजातरूपधरत्वक बहिरंग – अन्तरंग दो
जाता है ?..... ...................... १८६
लिंग..... ............................. २०५ श्रामण्यकी ‘भवति’ क्रियामें, इतनेसे
अकेला ही आत्मा बन्ध है..... ............ १८८
निश्चय और व्यवहारका अविरोध ............ १८९
अशुद्धनयसे अशुद्ध आत्माकी ही प्राप्ति..... १९०
शुद्धनयसे शुद्धात्माकी ही प्राप्ति.... ......... १९१
ध्रुवत्वके कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध
श्रामण्यकी प्राप्ति.... .................. २०७ सामायिकमें आरूढ़ श्रमण कदाचित्
छेदोपस्थापनाके योग्य.... ............. २०८ आचार्यके भेद..... .......................... २१० छिन्न संयमके प्रतिसंधानकी विधि..... ....... २११ श्रामण्यके छेदके आयतन होनेसे परद्रव्य
मोहग्रंथि टूटनेसे क्या होता है.... .......... १९५
एकाग्रसंचेतनलक्षणध्यान अशुद्धता
श्रामण्यकी परिपूर्णताका आयतन होनेसे
स्वद्रव्यमें ही प्रतिबन्ध कर्तव्य है...... . २१४ मुनिजनको निकटका सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्ध
उपरोक्त प्रश्नका उत्तर...... ............... १९८
शुद्धात्मोपलब्धिलक्षण मोक्षमार्गको निश्चित
छेद क्या है — इसका उपदेश..... ........... २१६
छेदके अन्तरंग – बहिरंग
सर्वथा अन्तरंग छेद निषेध्य है..... .......... २१८ उपधि अन्तरंग छेदकी भाँति त्याज्य है.... ... २१९ उपधिका निषेध वह अन्तरंग छेदका ही
करते हैं..... ........................ १९९ प्रतिज्ञाका निर्वहण करते हुए (आचार्यदेव)
करते हैं..... ........................ २००