यो हि नामैवं कर्तारं करणं कर्म कर्मफलं चात्मानमेव निश्चित्य न खलु परद्रव्यं परिणमति स एव विश्रान्तपरद्रव्यसंपर्कं द्रव्यान्तःप्रलीनपर्यायं च शुद्धमात्मानमुपलभते, न कत्ता स्वतन्त्रः स्वाधीनः कर्ता साधको निष्पादकोऽस्मि भवामि । स कः । अप्प त्ति आत्मेति । आत्मेति कोऽर्थः । अहमिति । कथंभूतः । एकः । कस्याः साधकः । निर्मलात्मानुभूतेः । किंविशिष्टः । निर्विकार- परमचैतन्यपरिणामेन परिणतः सन् । करणं अतिशयेन साधकं साधक तमं क रणमुपक रणं क रणकारक महमेक एवास्मि भवामि । क स्याः साधकम् । सहजशुद्धपरमात्मानुभूतेः । केन कृत्वा ।
अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि [श्रमणः ] श्रमण [कर्ता करणं कर्म कर्मफलं च आत्मा ] ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है’ [इति निश्चितः ] ऐसा निश्चयवाला होता हुआ [अन्यत् ] अन्यरूप [न एव परिणमति ] परिणमित ही नहीं हो, [शुद्धं आत्मानं ] तो वह शुद्ध आत्माको [लभते ] उपलब्ध करता है ।।१२६।।
टीका : — जो पुरुष इसप्रकार ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है’ यह निश्चय १करके वास्तवमें परद्रव्यरूप परिणमित नहीं होता, वही पुरुष, जिसका परद्रव्यके साथ संपर्क रुक गया है और जिसकी पर्यायें द्रव्यके भीतर प्रलीन हो गई हैं ऐसे शुद्धात्माको उपलब्ध करता है; परन्तु अन्य कोई (पुरुष) ऐसे शुद्ध आत्माको उपलब्ध नहीं करता ।
इसीको स्पष्टतया समझाते हैं : — १. ‘कर्ता करण इत्यादि आत्मा ही है’ ऐसा निश्चय होने पर दो बातें निश्चित हो जाती हैं । एक तो यह कि
दूसरी – ‘अभेद दृष्टिमें कर्ता, करण इत्यादि भेद नहीं हैं, यह सब एक आत्मा ही है अर्थात् पर्यायें द्रव्यके
मुनि अन्यरूप नव परिणमे, प्राप्ति करे शुद्धात्मनी. १२६.