पुनरन्यः । तथा हि — यदा नामानादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसंनिधिप्रधावितोपराग-
रंजितात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिप्रधावितोपरागरंजितात्मवृत्तिः स्फ टिकमणिरिव परारोपित-
विकारोऽहमासं संसारी, तदापि न नाम मम कोऽप्यासीत् । तदाप्यहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन
स्वतन्त्रः कर्तासम् । अहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन साधकतमः करणमासम् । अहमेक
एवोपरक्तचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्राप्यः कर्मासम् । अहमेक एव चोपरक्तचित्परिणमन-
स्वभावस्य निष्पाद्यं सौख्यविपर्यस्तलक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम् । इदानीं पुनरनादि-
रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानपरिणतिबलेन । कम्मं शुद्धबुद्धैकस्वभावेन परमात्मना प्राप्यं
व्याप्यमहमेक एव कर्मकारकमस्मि । फलं च शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मनः साध्यं निष्पाद्यं निज-
शुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादपरिणति-
रूपमहमेक एव फलं चास्मि । णिच्छिदो एवमुक्तप्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःख-
जीवितमरणशत्रुमित्रादिसमताभावनापरिणतः श्रमणः परममुनिः परिणमदि णेव अण्णं जदि परिणमति
२४८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
‘‘जब अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्मकी बन्धनरूप उपाधिकी निकटतासे उत्पन्न हुए
१उपरागके द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित (विकृत, मलिन) थी ऐसा मैं — जपाकुसुमकी
निकटतासे उत्पन्न हुये उपरागसे (लालिमासे) जिसकी स्वपरिणति रंजित (-रँगी हुई) हो
ऐसे स्फ टिक मणिकी भाँति — परके द्वारा २आरोपित विकारवाला होनेसे, संसारी था, तब
भी (अज्ञानदशामें भी) वास्तवमें मेरा कोई भी (संबंधी) नहीं था । तब भी मैं अकेला
ही ३कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभावसे स्वतंत्र था (अर्थात्
स्वाधीनतया कर्ता था); मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप
स्वभावके द्वारा साधकतम (-उत्कृष्टसाधन) था; मैं अकेला ही कर्म था, क्योंकि मैं अकेला
ही उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होनेके स्वभावके कारण आत्मासे प्राप्य (-प्राप्त होने योग्य)
था; और मैं अकेला ही सुखसे विपरीत लक्षणवाला, ‘दुःख’ नामक कर्मफल था — जो कि
(फल) उपरक्त चैतन्यरूप (फल) परिणमित होनेके स्वभावसे उत्पन्न किया जाता था ।
और अब, अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म की बंधनरूप उपाधिकी निकटताके नाशसे
जिसकी सुविशुद्ध सहज (-स्वाभाविक) स्वपरिणति प्रगट हुई है ऐसा मैं – जपाकुसुमकी
१. उपराग = किसी पदार्थमें, अन्य उपाधिकी समीपताके निमित्तसे होनेवाला उपाधिके अनुरूप विकारी भाव;
औपाधिकभाव; विकार; मलिनता ।
२. आरोपित = (नवीन अर्थात् औपाधिकरूपसे) किये गये । [विकार स्वभावभूत नहीं थे, किन्तु उपाधिके
निमित्तसे औपाधिकरूपसे (नवीन) हुए थे । ]
३. कर्ता, करण और कर्मके अर्थोंके लिये १६ वीं गाथाका भावार्थ देखना चाहिये ।