Pravachansar (Hindi).

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पुनरन्यः तथा हियदा नामानादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसंनिधिप्रधावितोपराग-
रंजितात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिप्रधावितोपरागरंजितात्मवृत्तिः स्फ टिकमणिरिव परारोपित-
विकारोऽहमासं संसारी, तदापि न नाम मम कोऽप्यासीत
तदाप्यहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन
स्वतन्त्रः कर्तासम् अहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन साधकतमः करणमासम् अहमेक
एवोपरक्तचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्राप्यः कर्मासम् अहमेक एव चोपरक्तचित्परिणमन-
स्वभावस्य निष्पाद्यं सौख्यविपर्यस्तलक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम् इदानीं पुनरनादि-
रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानपरिणतिबलेन कम्मं शुद्धबुद्धैकस्वभावेन परमात्मना प्राप्यं
व्याप्यमहमेक एव कर्मकारकमस्मि फलं च शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मनः साध्यं निष्पाद्यं निज-
शुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादपरिणति-
रूपमहमेक एव फलं चास्मि
णिच्छिदो एवमुक्तप्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःख-
जीवितमरणशत्रुमित्रादिसमताभावनापरिणतः श्रमणः परममुनिः परिणमदि णेव अण्णं जदि परिणमति
२४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
‘‘जब अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्मकी बन्धनरूप उपाधिकी निकटतासे उत्पन्न हुए
उपरागके द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित (विकृत, मलिन) थी ऐसा मैंजपाकुसुमकी
निकटतासे उत्पन्न हुये उपरागसे (लालिमासे) जिसकी स्वपरिणति रंजित (-रँगी हुई) हो
ऐसे स्फ टिक मणिकी भाँति
परके द्वारा आरोपित विकारवाला होनेसे, संसारी था, तब
भी (अज्ञानदशामें भी) वास्तवमें मेरा कोई भी (संबंधी) नहीं था तब भी मैं अकेला
ही कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभावसे स्वतंत्र था (अर्थात्
स्वाधीनतया कर्ता था); मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप
स्वभावके द्वारा साधकतम (-उत्कृष्टसाधन) था; मैं अकेला ही कर्म था, क्योंकि मैं अकेला
ही उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होनेके स्वभावके कारण आत्मासे प्राप्य (-प्राप्त होने योग्य)
था; और मैं अकेला ही सुखसे विपरीत लक्षणवाला, ‘दुःख’ नामक कर्मफल था
जो कि
(फल) उपरक्त चैतन्यरूप (फल) परिणमित होनेके स्वभावसे उत्पन्न किया जाता था
और अब, अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म की बंधनरूप उपाधिकी निकटताके नाशसे
जिसकी सुविशुद्ध सहज (-स्वाभाविक) स्वपरिणति प्रगट हुई है ऐसा मैंजपाकुसुमकी
१. उपराग = किसी पदार्थमें, अन्य उपाधिकी समीपताके निमित्तसे होनेवाला उपाधिके अनुरूप विकारी भाव;
औपाधिकभाव; विकार; मलिनता
२. आरोपित = (नवीन अर्थात् औपाधिकरूपसे) किये गये [विकार स्वभावभूत नहीं थे, किन्तु उपाधिके
निमित्तसे औपाधिकरूपसे (नवीन) हुए थे ]
३. कर्ता, करण और कर्मके अर्थोंके लिये १६ वीं गाथाका भावार्थ देखना चाहिये