विकारोऽहमासं संसारी, तदापि न नाम मम कोऽप्यासीत् । तदाप्यहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन
रूपमहमेक एव फलं चास्मि । णिच्छिदो एवमुक्तप्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःख-
‘‘जब अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्मकी बन्धनरूप उपाधिकी निकटतासे उत्पन्न हुए १उपरागके द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित (विकृत, मलिन) थी ऐसा मैं — जपाकुसुमकी निकटतासे उत्पन्न हुये उपरागसे (लालिमासे) जिसकी स्वपरिणति रंजित (-रँगी हुई) हो ऐसे स्फ टिक मणिकी भाँति — परके द्वारा २आरोपित विकारवाला होनेसे, संसारी था, तब भी (अज्ञानदशामें भी) वास्तवमें मेरा कोई भी (संबंधी) नहीं था । तब भी मैं अकेला ही ३कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभावसे स्वतंत्र था (अर्थात् स्वाधीनतया कर्ता था); मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभावके द्वारा साधकतम (-उत्कृष्टसाधन) था; मैं अकेला ही कर्म था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होनेके स्वभावके कारण आत्मासे प्राप्य (-प्राप्त होने योग्य) था; और मैं अकेला ही सुखसे विपरीत लक्षणवाला, ‘दुःख’ नामक कर्मफल था — जो कि (फल) उपरक्त चैतन्यरूप (फल) परिणमित होनेके स्वभावसे उत्पन्न किया जाता था ।
और अब, अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म की बंधनरूप उपाधिकी निकटताके नाशसे जिसकी सुविशुद्ध सहज (-स्वाभाविक) स्वपरिणति प्रगट हुई है ऐसा मैं – जपाकुसुमकी १. उपराग = किसी पदार्थमें, अन्य उपाधिकी समीपताके निमित्तसे होनेवाला उपाधिके अनुरूप विकारी भाव;
औपाधिकभाव; विकार; मलिनता । २. आरोपित = (नवीन अर्थात् औपाधिकरूपसे) किये गये । [विकार स्वभावभूत नहीं थे, किन्तु उपाधिके
निमित्तसे औपाधिकरूपसे (नवीन) हुए थे । ] ३. कर्ता, करण और कर्मके अर्थोंके लिये १६ वीं गाथाका भावार्थ देखना चाहिये ।