Pravachansar (Hindi).

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प्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसन्निधिध्वंसविस्फु रितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिध्वंस-
विस्फु रितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिः स्फ टिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपितविकारोऽहमेकान्तेनास्मि
मुमुक्षुः
इदानीमपि न नाम मम कोऽप्यस्ति इदानीमप्यहमेक एव सुविशुद्धचित्स्वभावेन
स्वतन्त्रः कर्तास्मि; अहमेक एव च सुविशुद्धचित्स्वभावेन साधकतमः करणमस्मि; अहमेक
एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्राप्यः कर्मास्मि; अहमेक एव च सुविशुद्ध-
चित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलत्वलक्षणं सौख्याख्यं कर्मफलमस्मि
एवमस्य
बन्धपद्धतौ मोक्षपद्धतौ चात्मानमेकमेव भावयतः परमाणोरिवैकत्वभावनोन्मुखस्य
नैवान्यं रागादिपरिणामं यदि चेत्, अप्पाणं लहदि सुद्धं तदात्मानं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितत्वेन शुद्धं
शुद्धबुद्धैकस्वभावं लभते प्राप्नोति इत्यभिप्रायो भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवानाम् ।।१२६।। एवमेक-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
२४९
प्र ३२
निकटताके नाशसे जिसकी सुविशुद्ध सहज स्वपरिणति प्रगट हुई हो ऐसे स्फ टिकमणिकी
भाँति
जिसका परके द्वारा आरोपित विकार रुक गया है ऐसा होनेसे एकान्ततः मुमुक्षु
(केवल मोक्षार्थी) हूँ; अभी भी (-मुमुक्षुदशामें अर्थात् ज्ञानदशामें भी) वास्तवमें मेरा कोई
भी नहीं है
अभी भी मैं अकेला ही कर्ता हूँ; क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध
चैतन्यस्वरूप स्वभावसे स्वतन्त्र हूँ, (अर्थात् स्वाधीनतया कर्ता हूँ); मैं अकेला ही करण
हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभावसे साधकतम हूँ; मैं अकेला ही कर्म
हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप परिणमित होनेके स्वभावके कारण आत्मासे
प्राप्य हूँ और मैं अकेला ही अनाकुलता लक्षणवाला, ‘सुख’ नामक कर्मफल हूँ
जो कि
(फल) सुविशुद्ध चैतन्यरूप परिणमित होनेके स्वभावसे उत्पन्न किया जाता है ’’
इसप्रकार बंधमार्गमें तथा मोक्षमार्गमें आत्मा अकेला ही है इसप्रकार भानेवाला
यह पुरुष परमाणुकी भाँति एकत्वभावनामें उन्मुख होनेसे, (अर्थात् एकत्वके भानेमें तत्पर
होनेसे), उसे परद्रव्यरूप परिणति किंचित् नहीं होती; और परमाणुकी भाँति (जैसे
१. सुविशुद्धचैतन्यपरिणमनस्वभाव आत्माका कर्म है, और वह कर्म अनाकुलतास्वरूप सुखको उत्पन्न करता
है, इसलिये सुख वह कर्मफल है सुख आत्माकी अवस्था होनेसे आत्म ही कर्मफल है
२. भाना = अनुभव करना; समझना; चिन्तवन करना [‘किसी जीवकाअज्ञानी या ज्ञानीकापरके
साथ सम्बन्ध नहीं है बंधमार्गमें आत्मा स्वयं निजको निजसे बाँधता था और निजको (अर्थात्
अपने दुःखपर्यायरूप फलको) भोगता था अब मोक्षमार्गमें आत्मा स्वयं निजको निजसे मुक्त
करता है और निजको (अर्थात् अपने सुखपर्यायरूप फलको) भोगता है ऐसे एकत्वको सम्यग्दृष्टि
जीव भाता हैअनुभव करता हैसमझता हैचिन्तवन करता है मिथ्यादृष्टि इससे विपरीतभावनावाला
होता है ]