एकत्वभावसे परिणमित परमाणु परके साथ संगको प्राप्त नहीं होता; उसी प्रकार–) एकत्वको
भानेवाला पुरुष परके साथ १संपृक्त नहीं होता, इसलिये परद्रव्यके साथ असंबद्धताके
कारण वह सुविशुद्ध होता है । और कर्ता, करण, कर्म तथा कर्मफलको २आत्मारूपसे
भाता हुआ वह पुरुष पर्यायोंसे संकीर्ण (-खंडित) नहीं होता; और इसलिये पर्यायोंके द्वारा संकीर्ण न होनेसे सुविशुद्ध होता है ।।१२६।।
[अब, श्लोक द्वारा इसी आशयको व्यक्त करके शुद्धनयकी महिमा करते हैं : — ]
अर्थ : — जिसने अन्य द्रव्यसे भिन्नताके द्वारा आत्माको एक ओर हटा लिया है (अर्थात्परद्रव्योंसे अलग दिखाया है ) तथा जिसने समस्त विशेषोंके समूहको सामान्यमें लीन किया है (अर्थात् समस्त पर्यायोंको द्रव्यके भीतर डूबा हुआ दिखाया है ) — ऐसा जो यह, उद्धतमोहकी लक्ष्मीको (-ऋद्धिको, शोभाको) लूँट लेनेवाला शुद्धनय है, उसने उत्कट विवेकके द्वारा तत्त्वको (आत्मस्वरूपको) ३विविक्त किया है ।
[अब शुद्धनयके द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त करनेवाले आत्माकी महिमा श्लोकद्वारा कहकर, द्रव्यसामान्यके वर्णनकी पूर्णाहुति की जाती है : — ]१. संपृक्त = संपर्कवाला; संबंधवाला; संगवाला ।२. सम्यग्दृष्टि जीव भेदोंको न भाकर अभेद आत्माको ही भाता — अनुभव करता है ।३. विविक्त = शुद्ध; अकेला; अलग ।