Pravachansar (Hindi).

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परद्रव्यपरिणतिर्न जातु जायते परमाणुरिव भावितैकत्वश्च परेण नो संपृच्यते ततः
परद्रव्यासंपृक्तत्वात्सुविशुद्धो भवति कर्तृकरणक र्मकर्मफलानि चात्मत्वेन भावयन् पर्यायैर्न
संकीर्यते; ततः पर्यायासंकीर्णत्वाच्च सुविशुद्धो भवतीति ।।१२६।।
(वसंततिलका छंद)
+द्रव्यान्तरव्यतिकरादपसारितात्मा
सामान्यमज्जितसमस्तविशेषजातः
इत्येष शुद्धनय उद्धतमोहलक्ष्मी-
लुण्टाक उत्कटविवेकविविक्ततत्त्वः
।।।।
सूत्रेण पञ्चमस्थलं गतम् इति सामान्यज्ञेयाधिकारमध्ये स्थलपञ्चकेन भेदभावना गता इत्युक्त-
प्रकारेण ‘तम्हा तस्स णमाइं’ इत्यादिपञ्चत्रिंशत्सूत्रैः सामान्यज्ञेयाधिकारव्याख्यानं समाप्तम् इत
ऊर्ध्वमेकोनविंशतिगाथाभिर्जीवाजीवद्रव्यादिविवरणरूपेण विशेषज्ञेयव्याख्यानं करोति तत्राष्टस्थलानि
भवन्ति तेष्वादौ जीवाजीवत्वकथनेन प्रथमगाथा, लोकालोकत्वकथनेन द्वितीया, सक्रियनिःक्रियत्व-
१. संपृक्त = संपर्कवाला; संबंधवाला; संगवाला
२. सम्यग्दृष्टि जीव भेदोंको न भाकर अभेद आत्माको ही भाताअनुभव करता है
३. विविक्त = शुद्ध; अकेला; अलग
२५०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
एकत्वभावसे परिणमित परमाणु परके साथ संगको प्राप्त नहीं होता; उसी प्रकार–) एकत्वको
भानेवाला पुरुष परके साथ संपृक्त नहीं होता, इसलिये परद्रव्यके साथ असंबद्धताके
कारण वह सुविशुद्ध होता है और कर्ता, करण, कर्म तथा कर्मफलको आत्मारूपसे
भाता हुआ वह पुरुष पर्यायोंसे संकीर्ण (-खंडित) नहीं होता; और इसलिये पर्यायोंके द्वारा
संकीर्ण न होनेसे सुविशुद्ध होता है
।।१२६।।
[अब, श्लोक द्वारा इसी आशयको व्यक्त करके शुद्धनयकी महिमा करते हैं : ]
अर्थ :जिसने अन्य द्रव्यसे भिन्नताके द्वारा आत्माको एक ओर हटा लिया है (अर्थात्
परद्रव्योंसे अलग दिखाया है ) तथा जिसने समस्त विशेषोंके समूहको सामान्यमें लीन किया
है (अर्थात् समस्त पर्यायोंको द्रव्यके भीतर डूबा हुआ दिखाया है )
ऐसा जो यह, उद्धत
मोहकी लक्ष्मीको (-ऋद्धिको, शोभाको) लूँट लेनेवाला शुद्धनय है, उसने उत्कट विवेकके
द्वारा तत्त्वको (आत्मस्वरूपको)
विविक्त किया है
[अब शुद्धनयके द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त करनेवाले आत्माकी महिमा श्लोक
द्वारा कहकर, द्रव्यसामान्यके वर्णनकी पूर्णाहुति की जाती है : ]