द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निर्वृत्तत्वमवतीर्णं प्रतिभाति स जीवः । यत्र पुनरुपयोगसहचरिताया
उवओगमओ उपयोगमयः अखण्डैकप्रतिभासमयेन सर्वविशुद्धेन केवलज्ञानदर्शनलक्षणेनार्थग्रहणव्यापार- रूपेण निश्चयनयेनेत्थंभूतशुद्धोपयोगेन, व्यवहारेण पुनर्मतिज्ञानाद्यशुद्धोपयोगेन च निर्वृत्तत्वान्निष्पन्न- त्वादुपयोगमयः । पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि अज्जीवं पुद्गलद्रव्यप्रमुखमचेतनं भवत्यजीवद्रव्यं; पुद्गलधर्माधर्माकाशकालसंज्ञं द्रव्यपञ्चकं पूर्वोक्तलक्षणचेतनाया उपयोगस्य चाभावादजीवमचेतनं और अजीवका, (विशेष लक्षण) अचेतनपना है । वहाँ (जीवके) स्वधर्मोंमें व्यापनेवाली होनेसे (जीवके) स्वस्वरूपसे प्रकाशित होती हुई, अविनाशिनी, भगवती, संवेदनरूप चेतनाके द्वारा तथा चेतनापरिणामलक्षण, १द्रव्यपरिणतिरूप उपयोगके द्वारा जिसमें निष्पन्नपना (-रचनारूपपना) अवतरित प्रतिभासित होता है, वह जीव है और जिसमें उपयोगके साथ रहनेवाली, २यथोक्त लक्षणवाली चेतनाका अभाव होनेसे बाहर तथा भीतर अचेतनपना अवतरित प्रतिभासित होता है, वह अजीव है ।
भावार्थ : — द्रव्यत्वरूप सामान्यकी अपेक्षासे द्रव्योंमें एकत्व है तथापि विशेष लक्षणोंकी अपेक्षासे उनके जीव और अजीव ऐसे दो भेद हैं । जो (द्रव्य) भगवती चेतनाके द्वारा और चेतनाके परिणामस्वरूप उपयोग द्वारा रचित है वह जीव है, और जो (द्रव्य) चेतनारहित होनेसे अचेतन है वह अजीव है । जीवका एक ही भेद है; अजीवके पांच भेद हैं, इन सबका विस्तृत विवेचन आगे किया जायगा ।।१२७।।
अब (द्रव्यके) लोकालोकस्वरूप विशेष (-भेद) निश्चित करते हैं : — १. चेतनाका परिणामस्वरूप उपयोग जीवद्रव्यकी परिणति है । २. यथोक्त लक्षणवाली = ऊ पर कहे अनुसार लक्षणवाली (चेतनाका लक्षण ऊ पर ही कहनेमें आया है ।)
आकाशमां जे भाग धर्म -अधर्म -काळ सहित छे, जीव -पुद्गलोथी युक्त छे, ते सर्वकाळे लोक छे. १२८.