तादन्यत्र लोकासंख्येयभागमात्रत्वाज्जीवस्य, लोकालोक सीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्ध-
कार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभवद्धर्ममधिगमयति । तथैकवारमेव स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुद्गला-
ज्जीवस्य, लोकालोकसीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्धकार्यहेतुत्वाद्धर्मस्य चासंभवदधर्ममधि-
मनुष्ठानं च कर्तव्यमिति ।।१३३ । १३४।। एवं कस्य द्रव्यस्य के विशेषगुणा भवन्तीति कथनरूपेण
वहाँ एक ही कालमें समस्त द्रव्योंको साधारण १अवगाहका संपादन (-अवगाहहेतुपनेरूप लिंग) आकाशको बतलाता है; क्योंकि शेष द्रव्योंके सर्वगत (सर्वव्यापक) न होनेसे उनके वह संभव नहीं है ।
इसीप्रकार एक ही कालमें गतिपरिणत (गतिरूपसे परिणमित हुए) समस्त जीव- पुद्गलोंको लोक तक गमनका हेतुपना धर्मको बतलाता है; क्योंकि काल और पुद्गल अप्रदेशी हैं इसलिये उनके वह संभव नहीं है; जीव समुद्घातको छोड़कर अन्यत्र लोकके असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है, लोक -अलोककी सीमा अचलित होनेसे आकाशको वह संभव नहीं है और विरुद्ध कार्यका हेतु होनेसे अधर्मको वह संभव नहीं है । (काल और पुद्गल एकप्रदेशी हैं, इसलिये वे लोक तक गमनमें निमित्त नहीं हो सकते; जीव समुद्घातको छोड़कर अन्य कालमें लोकके असंख्यातवें भागमें ही रहता है, इसलिये वह भी लोक तक गमनमें निमित्त नहीं हो सकता; यदि आकाश गतिमें निमित्त हो तो जीव और पुद्गलोंकी गति अलोकमें भी होने लगे, जिससे लोकाकाशकी मर्यादा ही न रहेगी; इसलिये गतिहेतुत्व आकाशका भी गुण नहीं है; अधर्म द्रव्य तो गतिसे विरुद्ध स्थितिकार्यमें निमित्तभूत है, इसलिये वह भी गतिमें निमित्त नहीं हो सकता । इसप्रकार गतिहेतुत्वगुण धर्मनामक द्रव्यका अस्तित्व बतलाता है ।)
इसीप्रकार एक ही कालमें स्थितिपरिणत समस्त जीव -पुद्गलोंको लोक तक स्थितिका हेतुपना अधर्मको बतलाता है; क्योंकि काल और पुद्गल अप्रदेशी होनेसे उनके वह संभव नहीं है; जीव समुद्घातको छोड़कर अन्यत्र लोकके असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है; लोक और अलोककी सीमा अचलित होनेसे आकाशके वह संभव नहीं है, और १. अवगाह = लीन होना; मज्जित होना, अवकाश प्राप्त करना । (एक ही कालमें सर्व द्रव्योंको सामान्य
अवकाशकी प्राप्तिमें आकाशद्रव्य निमित्तभूत है ।) प्र ३४