आकाशस्यैकाणुव्याप्योंऽशः किलाकाशप्रदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपंचद्रव्यप्रदेशानां परमसौक्ष्म्यपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः । अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंश- कल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणूनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः । यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ्गुलीयुगलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम् । एकं यत्सूचितं प्रदेशस्वरूपं तदिदानीं विवृणोति — आगासमणुणिविट्ठं आकाशं अणुनिविष्टं पुद्गल- परमाणुव्याप्तम् । आगासपदेससण्णया भणिदं आकाशप्रदेशसंज्ञया भणितं कथितम् । सव्वेसिं च अणूणं
अन्वयार्थ : — [अणुनिविष्टं आकाशं ] एक परमाणु जितने आकाशमें रहता है उतने आकाशको [आकाशप्रदेशसंज्ञया ] ‘आकाशप्रदेश’ ऐसे नामसे [भणितम् ] कहा गया है । [च ] और [तत् ] वह [सर्वेषां अणूनां ] समस्त परमाणुओंको [अवकाशं दातुं शक्नोति ] अवकाश देनेको समर्थ है ।।१४०।।
टीका : — आकाशका एक परमाणुसे व्याप्य अंश वह आकाशप्रदेश है; और वह एक (आकाशप्रदेश) भी शेष पाँच द्रव्योंके प्रदेशोंको तथा परम सूक्ष्मतारूपसे परिणमित अनन्त परमाणुओंके स्कंधोंको अवकाश देनेमें समर्थ है । आकाश अविभाग (अखंड) एक द्रव्य है, फि र भी उसमें (प्रदेशरूप) अंशकल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व परमाणुओंको अवकाश देना नहीं बन सकेगा ।
ऐसा होने पर भी यदि ‘आकाशके अंश नहीं होते’ (अर्थात् अंशकल्पना नहीं की जाती), ऐसी (किसीकी) मान्यता हो, तो आकाशमें दो अंगुलियाँ फै लाकर बताइये कि ‘दो अंगुलियोंका
आकाश जे अणुव्याप्य, ‘आभप्रदेश’ संज्ञा तेहने; ते एक सौ परमाणुने अवकाशदानसमर्थ छे. १४०.