अथ कालपदार्थोर्ध्वप्रचयनिरन्वयत्वमुपहन्ति — भण्यते । स च प्रदेशप्रचयलक्षणस्तिर्यक्प्रचयो यथा मुक्तात्मद्रव्ये भणितस्तथा कालं विहाय स्वकीय- स्वकीयप्रदेशसंख्यानुसारेण शेषद्रव्याणां स भवतीति तिर्यक्प्रचयो व्याख्यातः । प्रतिसमयवर्तिनां पूर्वोत्तरपर्यायाणां मुक्ताफलमालावत्सन्तान ऊर्द्ध्वप्रचय इत्यूर्ध्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते । स च सर्वद्रव्याणां भवति । किंतु पञ्चद्रव्याणां संबन्धी पूर्वापरपर्यायसन्तानरूपो योऽसावूर्ध्वताप्रचयस्तस्य स्वकीयस्वकीयद्रव्यमुपादानकारणम् । कालस्तु प्रतिसमयं सहकारिकारणं भवति । यस्तु कालस्य समयसन्तानरूप ऊर्ध्वताप्रचयस्तस्य काल एवोपादानकारणं सहकारिकारणं च । कस्मात् । कालस्य भिन्नसमयाभावात्पर्याया एव समया द्रव्यसे अनेक प्रदेशीपनेकी शक्तिसे युक्त एकप्रदेशवाला है तथा पर्यायसे दो अथवा बहुत (-संख्यात, असंख्यात और अनन्त) प्रदेशवाला है, इसलिये उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु कालके (तिर्यक्प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति (की अपेक्षा) से एक प्रदेशवाला है ।
ऊ र्ध्वप्रचय तो सर्व द्रव्योंके अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्यकी वृत्ति तीन कोटियोंको (-भूत, वर्तमान, और भविष्य ऐसे तीनों कालोंको) स्पर्श करती है, इसलिये अंशोंसे युक्त है । परन्तु इतना अन्तर है कि १समयविशिष्ट वृत्तियोंका प्रचय वह (कालको छोड़कर) शेष द्रव्योंका ऊ र्ध्वप्रचय है, और समयोंका प्रचय वही कालद्रव्यका ऊ र्ध्वप्रचय है; क्योंकि शेष द्रव्योंकी वृत्ति समयसे अर्थान्तरभूत (-अन्य) होनेसे वह (वृत्ति) समय विशिष्ट है, और कालद्रव्यकी वृत्ति तो स्वतः समयभूत है, इसलिये वह समयविशिष्ट नहीं है ।।१४१।।
अब, कालपदार्थका ऊ र्ध्वप्रचय २निरन्वय है, इस बातका खंडन करते हैं : — १.* समयविशिष्ट = समयसे विशिष्ट; समयके निमित्तभूत होनेसे व्यवहारसे जिसमें समयकी अपेक्षा
२. निरन्वय = अन्वय रहित, एक प्रवाहरूप न होनेवाला, खंडित; एकरूपता -सदृशतासे रहित ।