Pravachansar (Hindi). Gatha: 142.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
२८१
उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि जस्स एगसमयम्हि
समयस्स सो वि समओ सभावसमवट्ठिदो हवदि ।।१४२।।
उत्पादः प्रध्वंसो विद्यते यदि यस्यैकसमये
समयस्य सोऽपि समयः स्वभावसमवस्थितो भवति ।।१४२।।

समयो हि समयपदार्थस्य वृत्त्यंशः तस्मिन् कस्याप्यवश्यमुत्पादप्रध्वंसौ संभवतः, परमाणोर्व्यतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारणपूर्वत्वात् तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव, किं यौगपद्येन किं भवन्तीत्यभिप्रायः ।।१४१।। एवं सप्तमस्थले स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् अथ समयसन्तानरूपस्योर्ध्व- प्रचयस्यान्वयिरूपेणाधारभूतं कालद्रव्यं व्यवस्थापयतिउप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि उत्पादः प्रध्वंसो विद्यते यदि चेत् कस्य जस्स यस्य कालाणोः क्व एगसमयम्हि एकसमये वर्तमानसमये समयस्स समयोत्पादकत्वात्समयः कालाणुस्तस्य सो वि समओ सोऽपि कालाणुः सभावसमवट्ठिदो हवदि स्वभावसमवस्थितो भवति पूर्वोक्तमुत्पादप्रध्वंसद्वयं तदाधारभूतं कालाणुद्रव्यरूपं ध्रौव्यमिति

अन्वयार्थ :[यदि यस्य समयस्य ] यदि कालका [एक समये ] एक समयमें [उत्पादः प्रध्वंसः ] उत्पाद और विनाश [विद्यते ] पाया जाता है, [सः अपि समयः ] तो वह भी काल [स्वभावसमवस्थितः ] स्वभावमें अवस्थित अर्थात् ध्रुव [भवति ] (सिद्ध) है

टीका :समय कालपदार्थका वृत्त्यंश है; उसमें (-उस वृत्त्यंशमें) किसीके भी अवश्य उत्पाद तथा विनाश संभवित हैं; क्योंकि परमाणुके अतिक्रमणके द्वारा (समयरूपी वृत्त्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है (परमाणुके द्वारा एक आकाशप्रदेशका मंदगतिसे उल्लंघन करना वह कारण है और समयरूपी वृत्त्यंश उस कारणका कार्य है, इसलिये उसमें किसी पदार्थके उत्पाद तथा विनाश होते होना चाहिये ) ।।१४२।।

(‘किसी पदार्थके उत्पादविनाश होनेकी क्या आवश्यकता है ? उसके स्थान पर उस वृत्त्यंशको ही उत्पादविनाश होते मान लें तो क्या आपत्ति है ?’ इस तर्कका समाधान करते हैं)

यदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंशके ही माने जायें तो, (प्रश्न होता है कि) (१) वे १. वृत्त्यंश = वृत्तिका अंश; सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिणति अर्थात् पर्याय

एक ज समयमां ध्वंस ने उत्पादनो सद्भाव छे
जो काळने, तो काळ तेह स्वभाव
समवस्थित छे. १४२.
प्र. ३६