अस्ति हि समस्तेष्वपि वृत्त्यंशेषु समयपदार्थस्योत्पादव्ययध्रौव्यत्वमेकस्मिन् वृत्त्यंशे तस्य दर्शनात् । उपपत्तिमच्चैतत्, विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्वमन्तरेणानुपपत्तेः । अयमेव च दुभयाधारभूताङ्गुलिद्रव्यस्थानीयेन कालाणुद्रव्यरूपेण ध्रौव्यमिति कालद्रव्यसिद्धिरित्यर्थः ।।१४२।। अथ पूर्वोक्तप्रकारेण यथा वर्तमानसमये कालद्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्यत्वं स्थापितं तथा सर्वसमयेष्व- स्तीति निश्चिनोति — एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा एकस्मिन्समये सन्ति विद्यन्ते । के । अवस्थित न हो ? (काल पदार्थके एक वृत्त्यंशमें भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं, इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावतः अवश्य ध्रुव है ।)
इसप्रकार एक वृत्त्यंशमें कालपदार्थ उत्पाद – व्यय – ध्रौव्यवाला है, ऐसा सिद्ध हुआ ।।१४२।।
अब, (जैसे एक वृत्त्यंशमें कालपदार्थ उत्पाद – व्यय – ध्रौव्यवाला सिद्ध किया है उसीप्रकार) सर्व वृत्त्यंशोंमें कालपदार्थ उत्पाद – व्यय – ध्रौव्यवाला है ऐसा सिद्ध करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [एकस्मिन् समये ] एक – एक समयमें [संभवस्थितिनाशसंज्ञिताः अर्थाः ] उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय नामक अर्थ [समयस्य ] कालके [सर्वकालं ] सदा [संति ] होते हैं । [एषः हि ] यही [कालाणुसद्भावः ] कालाणुका सद्भाव है; (यही कालाणुके अस्तित्वकी सिद्धि है ।)।१४३।।
टीका : — कालपदार्थके सभी वृत्त्यंशोमें उत्पाद – व्यय – ध्रौव्य होते हैं, क्योंकि (१४२वीं गाथामें जैसा सिद्ध हुआ है तदनुसार) एक वृत्त्यंशमें वे (उत्पाद – व्यय – ध्रौव्य) देखे जाते हैं । और यह योग्य ही है, क्योंकि विशेष अस्तित्व सामान्य अस्तित्वके बिना नहीं हो