Pravachansar (Hindi). Gatha: 150.

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२९प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

प्राणैर्हि तावज्जीवः कर्मफलमुपभुंक्ते; तदुपभुंजानो मोहप्रद्वेषावाप्नोति; ताभ्यां स्वजीव- परजीवयोः प्राणाबाधं विदधाति तदा कदाचित्परस्य द्रव्यप्राणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्य भावप्राणानुपरक्तत्वेन बाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बध्नाति एवं प्राणाः पौद्गलिककर्मकारणतामुपयान्ति ।।१४९।।

अथ पुद्गलप्राणसन्ततिप्रवृत्तिहेतुमन्तरंगमासूत्रयति
आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे
ण चयदि जाव ममत्तिं देहपधाणेसु विसयेसु ।।१५०।।

ज्ञानस्वरूपं स्वकीयशुद्धप्राणं हन्ति, पश्चादुत्तरकाले परप्राणघाते नियमो नास्तीति ।।१४९।। अथेन्द्रि- यादिप्राणोत्पत्तेरन्तरङ्गहेतुमुपदिशतिआदा कम्ममलिमसो अयमात्मा स्वभावेन भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्म- मलरहितत्वेनात्यन्तनिर्मलोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशान्मलीमसो भवति तथाभूतः सन् किं करोति धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे धारयति प्राणान् पुनःपुनः अन्यान्नवतरान् यावत्किम् ण चयदि

टीका :प्रथम तो प्राणोंसे जीव कर्मफलको भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा द्वेषको प्राप्त होता है; मोह तथा द्वेषसे स्वजीव तथा परजीवके प्राणोंको बाधा पहुँचाता है वहाँ कदाचित् (-किसी समय) परके द्रव्य प्राणोंको बाधा पहुँचाकर और कदाचित् (परके द्रव्य प्राणोंको) बाधा न पहुँचाकर, अपने भावप्राणोंको तो उपरक्तपनेसे (अवश्य ही) बाधा पहुँचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मोंको बाँधता है इसप्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मोंके कारणपनेको प्राप्त होते हैं ।।१४९।।

अब पौद्गलिक प्राणोंकी संततिकी (-प्रवाहकीपरम्पराकी) प्रवृत्तिका अन्तरंग हेतु सूत्र द्वारा कहते हैं : १. बाधा = पीडा, उपद्रव, विघ्न २. उपरक्तपना = मलिनपना; विकारीपना; मोहादिपरिणामरूप परिणमित होना [जैसे कोई पुरुष तप्त लोहेके

गोलेसे दूसरेको जलानेकी इच्छा करता हुआ प्रथम तो स्वयं अपनेको ही जलाता है; (-स्वयं अपने ही
हाथको जलाता है ) फि र दूसरा जले या न जले
इसका कोई नियम नहीं है; उसीप्रकार जीव
मोहादिपरिणामरूप परिणमित होता हुआ प्रथम तो निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानस्वरूप निज शुद्ध भावप्राणोंको
ही हानि पहुँचाता है, फि र दूसरेके द्रव्यप्राणोंकी हानि हो या न हो
इसका कोई नियम नहीं है ]
कर्मे मलिन जीव त्यां लगी प्राणो धरे छे फरी फरी,
ममता शरीरप्रधान विषये ज्यां लगी छोडे नहीं. १५०
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