प्राणैर्हि तावज्जीवः कर्मफलमुपभुंक्ते; तदुपभुंजानो मोहप्रद्वेषावाप्नोति; ताभ्यां स्वजीव- परजीवयोः प्राणाबाधं विदधाति । तदा कदाचित्परस्य द्रव्यप्राणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्य भावप्राणानुपरक्तत्वेन बाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बध्नाति । एवं प्राणाः पौद्गलिककर्मकारणतामुपयान्ति ।।१४९।।
ज्ञानस्वरूपं स्वकीयशुद्धप्राणं हन्ति, पश्चादुत्तरकाले परप्राणघाते नियमो नास्तीति ।।१४९।। अथेन्द्रि- यादिप्राणोत्पत्तेरन्तरङ्गहेतुमुपदिशति — आदा कम्ममलिमसो अयमात्मा स्वभावेन भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्म- मलरहितत्वेनात्यन्तनिर्मलोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशान्मलीमसो भवति । तथाभूतः सन् किं करोति । धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे धारयति प्राणान् पुनःपुनः अन्यान्नवतरान् । यावत्किम् । ण चयदि
टीका : — प्रथम तो प्राणोंसे जीव कर्मफलको भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा द्वेषको प्राप्त होता है; मोह तथा द्वेषसे स्वजीव तथा परजीवके प्राणोंको १बाधा पहुँचाता है । वहाँ कदाचित् (-किसी समय) परके द्रव्य प्राणोंको बाधा पहुँचाकर और कदाचित् (परके द्रव्य प्राणोंको) बाधा न पहुँचाकर, अपने भावप्राणोंको तो २उपरक्तपनेसे (अवश्य ही) बाधा पहुँचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मोंको बाँधता है । इसप्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मोंके कारणपनेको प्राप्त होते हैं ।।१४९।।
अब पौद्गलिक प्राणोंकी संततिकी (-प्रवाहकी – परम्पराकी) प्रवृत्तिका अन्तरंग हेतु सूत्र द्वारा कहते हैं : — १. बाधा = पीडा, उपद्रव, विघ्न । २. उपरक्तपना = मलिनपना; विकारीपना; मोहादिपरिणामरूप परिणमित होना । [जैसे कोई पुरुष तप्त लोहेके
हाथको जलाता है ) फि र दूसरा जले या न जले — इसका कोई नियम नहीं है; उसीप्रकार जीव
ही हानि पहुँचाता है, फि र दूसरेके द्रव्यप्राणोंकी हानि हो या न हो — इसका कोई नियम नहीं है ।]
ममता शरीरप्रधान विषये ज्यां लगी छोडे नहीं. १५०.