य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति ।
कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ।।१५१।।
पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तेरन्तरंगो हेतुर्हि पौद्गलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्याभावः । स तु
समस्तेन्द्रियादिपरद्रव्यानुवृत्तिविजयिनो भूत्वा समस्तोपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्य स्फ टिकमणे-
रिवात्यन्तविशुद्धमुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधिवसतः स्यात् । इदमत्र तात्पर्यं —
आत्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वसिद्धये व्यवहारजीवत्वहेतवः पुद्गलप्राणा एवमुच्छेत्तव्याः ।।१५१।।
केवलज्ञानदर्शनोपयोगं निजात्मानं ध्यायति, कम्मेहिं सो ण रज्जदि कर्मभिश्चिच्चमत्कारात्मनः प्रतिबन्ध-
कैर्ज्ञानावरणादिकर्मभिः स न रज्यते, न बध्यते । किह तं पाणा अणुचरंति कर्मबन्धाभावे सति तं पुरुषं
२९६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अन्वयार्थ : — [यः ] जो [इन्द्रियादिविजयीभूत्वा ] इन्द्रियादिका विजयी होकर
[उपयोगं आत्मकं ] उपयोगमात्र आत्माका [ध्यायति ] ध्यान करता है, [सः ] वह [कर्मभिः ]
कर्मोंके द्वारा [न रज्यते ] रंजित नहीं होता; [तं ] उसे [प्राणाः ] प्राण [कथं ] कैसे
[अनुचरंति ] अनुसरेंगे ? (अर्थात् उसके प्राणोंका सम्बन्ध नहीं होता ।) ।।१५१।।
टीका : — वास्तवमें पौद्गलिक प्राणोंके संततिकी निवृत्तिका अन्तरङ्ग हेतु
पौद्गलिक कर्म जिसका कारण ( – निमित्त) है ऐसे १उपरक्तपनेका अभाव है । और वह
अभाव जो जीव समस्त इन्द्रियादिक परद्रव्योंके अनुसार परिणतिका विजयी होकर, (अनेक
वर्णोवाले) २आश्रयानुसार सारी परिणतिसे व्यावृत्त (पृथक्, अलग) हुए स्फ टिक मणिकी
भाँति, अत्यन्त विशुद्ध उपयोगमात्र अकेले आत्मामें सुनिश्चलतया वसता है, उस जीवके
होता है ।
यहाँ यह तात्पर्य है कि — आत्माकी अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करनेके लिये
व्यवहारजीवत्वके हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इसप्रकार उच्छेद करनेयोग्य हैं ।
भावार्थ : — जैसे अनेक रंगयुक्त आश्रयभूत वस्तुके अनुसार जो (स्फ टिक
मणिका) अनेकरंगी परिणमन है उससे सर्वथा व्यावृत्त हुये स्फ टिकमणिके उपरक्तपनेका
अभाव है, उसीप्रकार अनेकप्रकारके कर्म व इन्द्रियादिके अनुसार जो (आत्माका) अनेक
प्रकारका विकारी परिणमन है उससे सर्वथा व्यावृत्त हुये आत्माके ( – जो एक उपयोगमात्र
१. उपरक्तपना = विकृतपना; मलिनपना; रंजितपना; उपरागयुक्तपना, (उपरागके अर्थके लिये गाथा १२६का
फु टनोट देखो])
२. आश्रय = जिसमें स्फ टिकमणि रखा हो वह वस्तु ।