Pravachansar (Hindi).

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स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चित एवान्य-
स्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः स खलु पुद्गलस्य
पुद्गलान्तर इव जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः संभाव्यत एव
उपपन्नश्चैवंविधः पर्यायः, अनेकद्रव्यसंयोगात्मत्वेन केवलजीवव्यतिरेक मात्रस्यैकद्रव्यपर्यायस्या-
स्खलितस्यान्तरवभासनात
।।१५२।।
अथ पर्यायव्यक्तीर्दर्शयति
प्रथमविशेषान्तराधिकारे समुदायपातनिका तद्यथाअथ पुनरपि शुद्धात्मनो विशेषभेदभावनार्थं
नरनारकादिपर्यायरूपं व्यवहारजीवत्वहेतुं दर्शयतिअत्थित्तणिच्छिदस्स हि चिदानन्दैकलक्षणस्वरूपास्ति-
त्वेन निश्चितस्य ज्ञातस्य हि स्फु टम् कस्य अत्थस्स परमात्मपदार्थस्य अत्थंतरम्हि शुद्धात्मार्थादन्यस्मिन्
ज्ञानावरणादिकर्मरूपे अर्थान्तरे संभूदो संजात उत्पन्नः अत्थो यो नरनारकादिरूपोऽर्थः, पज्जाओ सो
निर्विकारशुद्धात्मानुभूतिलक्षणस्वभावव्यञ्जनपर्यायादन्यादृशः सन् विभावव्यञ्जनपर्यायो भवति स
इत्थंभूतपर्यायो जीवस्य
कैः कृत्वा जातः संठाणादिप्पभेदेहिं संस्थानादिरहितपरमात्मद्रव्यविलक्षणैः
संस्थानसंहननशरीरादिप्रभेदैरिति ।।१५२।। अथ तानेव पर्यायभेदान् व्यक्तीकरोतिणरणारयतिरियसुरा
२९प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीका :स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्वसे निश्चित एक अर्थका (द्रव्यका),
स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्वसे ही निश्चित ऐसे अन्य अर्थमें (द्रव्यमें) विशिष्टरूपसे (-भिन्न
भिन्न रूपसे) उत्पन्न होता हुआ जो अर्थ (-भाव), वह अनेकद्रव्यात्मक पर्याय है वह
अनेकद्रव्यात्मक पर्याय वास्तवमें, जैसे पुद्गलकी अन्य पुद्गलमें (अनेकद्रव्यात्मक उत्पन्न
होती हुई देखी जाती है उसीप्रकार, जीवकी पुद्गलमें संस्थानादिसे विशिष्टतया (-संस्थान
इत्यादिके भेद सहित) उत्पन्न होती हुई अनुभवमें अवश्य आती है
और ऐसी पर्याय उपपन्न
(-योग्य घटित, न्याययुक्त) है; क्योंकि जो केवल जीवकी व्यतिरेकमात्र है ऐसी अस्खलित
एकद्रव्यपर्याय ही अनेक द्रव्योंके संयोगात्मकरूपसे भीतर अवभासित होती है
भावार्थ :यद्यपि प्रत्येक द्रव्यका स्वरूपअस्तित्व सदा ही भिन्नभिन्न रहता है
तथापि, जैसे पुद्गलोंकी अन्य पुद्गलके संबंधसे स्कंधरूप पर्याय होती है उसीप्रकार
जीवकी पुद्गलोंके संबंधसे देवादिक पर्याय होती है
जीवकी ऐसी अनेकद्रव्यात्मक
देवादिपर्याय अयुक्त नहीं है; क्योंकि भीतर देखने पर, अनेक द्रव्योंका संयोग होने पर भी,
जीव कहीं पुद्गलोंके साथ एकरूप पर्याय नहीं करता, परन्तु वहाँ भी मात्र जीवकी
(-पुद्गलपर्यायसे भिन्न-) अस्खलित (-अपनेसे च्युत न होनेवाली) एकद्रव्यपर्याय ही सदा
प्रवर्तमान रहती है
।।१५२।।
अब पर्यायके भेद बतलाते हैं :